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________________ हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है । किन्तु यह अवश्य है कि शुभ और अशुभ, औचित्य और अनौचित्य के बारे में उनमें मौलिक मतभेद है। इसका कारण यह है कि मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष सम्बन्ध 'क्या है' से है न कि 'क्या होना चाहिए' से। नैतिक सिद्धान्तों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नीतिज्ञों ने परमशुभ के बारे में विभिन्न मत दिये हैं। इसका क्या कारण है ? यदि परमशुम मनुष्य के सत्यस्वरूप के अनुरूप है तो वह अनेक कैसे हो सकता है ? यदि मनुष्य का परमवांछनीय शुभ उसकी वास्तविक आत्मा का प्रतिबिम्ब है तो वांछनीय शुभ के बारे में मतभेद का क्या कारण है ? इस मतभेद के मूल में अपूर्ण मनोवैज्ञानिक ज्ञान ही है । सैद्धान्तिकों ने मनुष्य के स्वभाव को दो भागों में विभाजित कर लिया है—बौद्धिक और अबौद्धिक । वह यह भूल गये कि व्यक्ति बुद्धि और भावना की सामंजस्यपूर्ण इकाई है । बुद्धि और भावना एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन की उन्नति और कल्याण इन दोनों के समन्वय से सम्भव है। किन्तु इस तथ्य को भूलते हुए कुछ नीतिज्ञों ने बुद्धि को प्रधानता दी और कुछ ने भावना को; अथवा एक ओर बुद्धिपरतावाद मिलता है और दूसरी ओर इन्द्रियपरतावाद । मनुष्य न तो शुद्ध बुद्धि है और न केवल भावना है। उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त अमनोवैज्ञानिक हो जाने के कारण अनैतिक हो गये हैं। मानव-स्वभाव की भ्रान्त धारणा इस एकांगी सिद्धान्त के लिए दोषी है । अतः मानसविज्ञान से. अनभिज्ञ होना नीतिज्ञों के लिए कुछ कम खतरे की बात नहीं है । उनका व्यावहारिक दर्शन पंगु तथा अव्यावहारिक हो जाता है। मनोविज्ञान का अधूरा ज्ञान नीतिशास्त्र के उन दुर्बल और क्षीण सिद्धान्तों को जन्म देता है जिनके कि प्रांशिक सत्य को मानते हुए भी हमें मोड़ना पड़ता है। नीतिशास्त्र का सम्बन्ध सम्पूर्ण व्यक्ति से है। नैतिक प्राणी कर्ता है। वह अपने इस रूप में ज्ञानात्मक, क्रियात्मक और रागात्मक प्रवृत्तियों का संयोजित रूप है। उसकी संकल्प-शक्ति उसके बौद्धिक, अबौद्धिक स्वभाव का व्यक्त रूप है । संकल्प शक्ति में दोनों ही निहित हैं। उसकी संकल्पशक्ति वह क्रिया है जिसकी बुद्धि और भावना अनिवार्य अंग है, जिसमें दोनों ही सम्मिलित हैं । नीतिशास्त्र विज्ञान होने के नाते मनोविज्ञान के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। इसीलिए सिजविक ने कहा है कि मैं नीतिशास्त्र को एक अध्ययन अथवा विज्ञान के रूप में देखना पसन्द करता हूँ जो हमें इसका ज्ञान देता है कि उचित क्या है और वास्तव में क्या होना चाहिए-जहाँ तक कि वह व्यक्तियों के स्वेच्छा-प्रेरित कर्म पर अवलम्बित है। इसी आधार पर नीतिशास्त्र को एथोलोजी (Ethology) मनोवैज्ञानिक आधार तथा नैतिक निर्णय | ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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