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________________ एक रूप माना और समझाया कि अनुभवात्मक और वर्णनात्मक प्रणाली को अपनाकर नैतिक बाध्यता तथा कर्तव्य को नहीं समझाया जा सकता। सहजज्ञानवादियों की भाँति उन्होंने शुभ-अशुभ की विभक्तियों को परम नहीं माना क्योंकि इन्हें दो स्वतन्त्र सत्यों के रूप में नहीं समझाया जा सकता। अशभ अबौद्धिक प्रवृत्ति या वस्तुओं के एकांगी ज्ञान का सूचक है । प्रकृति और मानस एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि मानस प्रकृति में अन्तहित हैं। विरोधों में सामंजस्य-पूर्णतावादियों ने मानव-स्वभाव की संगति को समझाया । दार्शनिक सिद्धान्तों तथा मानव-संस्कृति और सभ्यता का इतिहास बतलाता है कि चिन्तन और व्यवहार के क्षेत्र में हमें सर्वत्र, सभी देश और सभी कालों में वैराग्यवादी और भोगवादी दो दृष्टिकोण मिलते हैं। ये दोनों ही वास्तविक जीवन-समस्या पर आधारित हैं और नैतिक चिन्तन के लिए पर्याप्त सामग्री देते हैं। बुद्धि और भावना दोनों के ही अधिकार को समझना उस व्यापक सिद्धान्त को अपनाना है जो कि मनुष्य के लिए वांछनीय है। ऐसे वांछनीय सिद्धान्त को देने का प्रयास पूर्णतावादियों ने किया है। निःसन्देह नैतिक विज्ञान का काम एक स्थितप्रज्ञ का काम है। अपनी उग्रता के कारण वास्तविक जीवन का निराकरण करनेवाली प्रवृत्तियों और विचारों को समत्व के मानदण्ड के अधीन रखना उचित है । अतः दोनों के प्रतिभासित चिर-प्रसंगत विरोधों को दूर करने का श्रेय पूर्णतावाद को है। प्लेटो ने बुद्धि और भावना दोनों के सामान्य जीवन की उस एकता को समझाया जो न्याय और संगति की धारणा से संचालित है । हीगल ने इन्द्रियबोध और बुद्धि में संगति देखी । वह संवेदना और विचार की एकता के मूर्त तथ्य को यह कहकर स्थापित करता है कि वास्तविक ही बुद्धिमय है। ग्रीन ने अपनी पुस्तक' में इस संगति को समझाने का सफल प्रयास किया है । भावना और बुद्धि की संगति और एकता को समझने के लिए यह समझना भी अत्यन्त आवश्यक है कि उनमें विरोध है अन्यथा यह संगति सार्थक नहीं होगी। प्राचीन विचारकों ने विरोध को अत्यधिक महत्त्व दिया और इसलिए वे उस जीवन को नहीं समझा पाये जो मानव-जीवन है। आधुनिक विचारकों, विशेषकर, हीगल के मतावलम्बियों ने इन्द्रियों को बुद्धि का प्रतिरूप और सिरनामा कहकर समन्वय की उस समस्या को हटा दिया जो वास्तव में है। किन्तु फिर भी पूर्णतावादियों के लिए यह मानना होगा कि 1. Prolegomena to Ethics. पूर्णतावाद | २७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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