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________________ प्रतिपादन किया। तीनों ही यह मानते हैं कि परम ध्येय सुख है, नैतिक नियमों को समझने के लिए जीवशास्त्र का ज्ञान अनिवार्य है और जैव नियमों द्वारा ही नैतिक नियमों का निगमन किया जा सकता है । अतः इनका सिद्धान्त विकासवादी सखवाद के नाम से विख्यात है। विकास की धारणा का नीति में प्रवेश : नैतिकता विश्व प्रकृति का अंगपूर्व विचारकों के विपरीत स्पेंसर नीतिशास्त्र को सष्टिविज्ञान (Cosmology) . की शाखा मानता है । मानवता विस्तृत वैश्व विधान का अंगमात्र है, वह उन्हीं नियमों से संचालित है जिनसे विश्व संचालित है। मनुष्य का स्वतन्त्र रूप से विकास नहीं हुआ है। उसकी वर्तमान स्थिति विश्व-विकास का ही अनिवार्य परिणाम है । मनुष्य में विवेक के जन्म को एक प्राकस्मिक घटना या संयोग के रूप में नहीं समझना चाहिए। वह विकास की एक आवश्यक स्थिति है। सभ्यता, संस्कृति का विकास, नैतिक चेतना की जागृति आदि प्राकृतिक विकास के ही अंग हैं। यह वैसा ही है जैसा कि फल का प्रस्फुटन या भ्रूण का विकास । मनुष्य में जो नैतिकता की भावना मिलती है वह उसका परिस्थितियों के साथ क्रमशः संयोजित होने का और जीवन के विकास का परिणाम है। असंख्य पीढ़ियों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को ही उसने अपने वंशानुगत गुणों के रूप में पाया है । उसके वास्तविक नैतिक स्वभाव को समझने के लिए उसके पूर्वजों के इतिहास का अध्ययन कर उनके और वातावरण के बीच के सम्बन्ध को समझना होगा तथा जानना होगा कि उन्होंने जीवन-संघर्ष के अनुभव से क्या सीखा है। उपयोगितावादियों ने सामाजिक और वैयक्तिक जीवन की विकासहीन स्थिर व्याख्या की है। व्यक्तियों में उन्होंने जो परिवर्तन देखे हैं वें उनके अनुसार शिक्षा, परिस्थिति और जन्म के कारण हैं एवं आकस्मिक और व्यक्तिगत हैं । उन्होंने उनकी उस विश्वव्यापी विकासजन्य परिवर्तन के रूप में नहीं समझा जो किरत रूप से विश्व में हो रहा है। मनुष्य-स्वभाव का जो अनुभव-सापेक्ष ज्ञान मिलता है, उसकी योग्यता के बारे में जितना पता है उसी के आधार पर नैतिक ध्येय (सुख) के स्वरूप और उसकी प्राप्ति तथा वितरण की रूपरेखा बनायी जा सकती है। विकासवादियों ने समझाया कि नैतिक जीवन विकास और उन्नति का जीवन है। नैतिक भावनाएं परिवर्तित होती रहती हैं। नैतिक जीवन विश्व-विकास का ही अंग है। इसका भी आदि. मध्य और अन्त है। जीवन की महत्ता अन्तिम स्थिति की क्रमिक उपलब्धि में है। स्पेंसर का विश्वास था कि मनुष्य का विकास नीची स्थिति से ऊंची स्थिति Ca विकासवादी सुखवाद | १८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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