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________________ धारणा हो सकती है। उनकी धर्म-विषयक धारणाओं में जो एक भयंकर अनैतिकता और असमानता की झलक मिलती है उसके लिए उनके अवचेतन के संस्कारों को ही दोषी बतलाना उचित होगा। उनकी तर्कबुद्धि अत्यन्त तीक्षण और घातक थी। उसने मनुष्यों के एकमात्र अवलम्ब ईश्वर को भी छीन लिया। उनके अनीश्वरवाद के कारण अधिकांश लोग उन्हें वौद्धिक दानव समझने लगे हैं । उनकी जीवनी का सहानुभूतिपूर्ण अध्ययन और उनकी पुस्तक 'बियॉण्ड गुड ऐण्ड इविल' ( Beyond good and evil) के मनन से स्पष्ट हो जाता है कि उनका उद्देश्य लोगों को धर्म से स्खलित करने का नहीं था । उन्होंने धर्म को एक बौद्धिक और तार्किक स्तर पर उठाने का प्रयास किया, जिससे वह अनीश्वरवादी बन गये । पूर्ण विकसित, बौद्धिक जनसत्ता राज्य (intelJcetual aristocracy) को समझाने के हेतु उन्होंने नैतिकता को, जैसा कि हम ग्रागे देखेंगे, दो विरोधी वर्गों में बाँट दिया : प्रभों की नैतिकता और दासों की नैतिकता । प्रभुनों की नैतिकता की श्रेष्ठता समझाने के अभिप्राय से उन्होंने दासों की नैतिकता (प्रचलित नैतिकता)को संघ सदाचार( (herd morality) तथा उपयोगितावादी नैतिकता (Utilitarian morality) कहकर उसकी खिल्ली उड़ायी। उसी आधार पर उन्होंने ईसाई धर्म के सदाचार की भी कड़ी अालोचना की। किन्तु यह मानना ही होगा कि उन्होंने दुर्बुद्धि के कारण ही अनीश्वरवाद को महत्त्व देकर उसका प्रचार किया। एक असम्भव महत्त्वाकांक्षा के कारण ही वे जीवन भर स्नेह, शान्ति, सम्मान और कीर्ति को न पा सके । उनके भाग्य और स्वभाव ने उन्हें सर्वत्र निराशा और झुंझलाहट ही दी । उनके जीवन की निराशा और कटुता का एक और कारण था-उनका सन्मित्रों के साथ अन्तरतम सम्बन्ध का अभाव । उन्हें जीवन में सहानुभति और प्रेम-सी कोई वस्तु प्राप्त न हो सकी । वे समचित्तवृत्ति एवं समबुद्धि मित्रता के लिए प्राजन्म १. अपनी सत्यानासी महत्त्वाकांक्षा के कारण ही वह इस तथ्य पर पहुँचे कि पृथ्वी में अति मानव (पूर्ण विकसित व्यक्ति अथवा प्रभुत्व प्राप्ति की महदाकांक्षावाला प्राणी) से महान कुछ नहीं है। अपनी घातक तर्कद्धि द्वारा उन्होंने भगवान् की सत्ता तथा मानवीय गुणों की वास्तविकता पर सन्देह किया और वे इस परिणाम पर पहुँचे कि सत्य का ज्ञान इस बात का साक्षी है कि अतिमानव (अति दानव ? ) को ही जीवित रहने का अधिकार है। २. "एक पूर्ण व्यक्ति को मित्रों की आवश्यकता होती है, अथवा उसे ईश्वर पर अनन्य विश्वास होना चाहिए । मेरे पास न तो ईश्वर है और न मित्र ही...!" फ्रेडरिक नीत्से | ३०७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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