SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्म-संयम से शान्त सुख की प्राप्ति होती है । अणुवाद : भय से मुक्ति - शान्त, अविचल मानसिक स्थिति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य भय से अपने को मुक्त करे । वह अन्धविश्वासों - मृत्यु, नरक, ईश्वर आदि के हाथ का खिलोना बनकर सुखी नहीं रह सकता । वह मृत्यु और देवताओं के भय से सदैव त्रस्त रहेगा । मनुष्य को इस भय से मुक्त करने के लिए उसने डिमोक्रिटस के जड़वादी विश्व निर्माण के सिद्धान्त को स्वीकार किया । उसका कहना था कि भगवान् सृष्टिकर्त्ता नहीं है । विश्वनिर्माण की दृष्टि से भगवान् महत्त्वहीन हैं। जहाँ तक मृत्यु का प्रश्न हैं, उससे भी भयभीत होने का कोई कारण नहीं । मृत्यु का विचारं दुःखप्रद है, न कि मृत्यु । वास्तव में मृत्यु कुछ नहीं है । जब तक हम हैं, मृत्यु नहीं है; जब मृत्यु प्राती है, हम नहीं रहते । अतः मनुष्य काल्पनिक भयों से ऊपर उठकर शान्त, अविचल स्थिति को प्राप्त कर सकता है । सद्गुण : अनिवार्य साधन - सुखी जीवन के लिए सद्गुण अनिवार्य साधन है । वे बुद्धि द्वारा प्राप्त होते हैं । उनकी सहायता से अत्यधिक सुख की उपलब्धि सम्भव है । उदाहरणार्थ, सुखप्रद जीवन के लिए न्याय उचित है, अन्याय नहीं | अन्याय को अपनाने पर एवं अनुचित कर्म करने पर, मानसिक शान्ति खो जाती है । अनुचित कर्म के पता लगने का निरन्तर भय लगा रहता है । अतः संयम, न्याय, सद्भाव, सौहार्द आदि गुणों को अपनाना चाहिए । व्यावसायिक बुद्धि ( Prudence ) सर्वश्रेष्ठ सद्गुण है । उसके आधार पर उचित सुख का संग्रह किया जा सकता है । साथ ही उसने प्रचलित मान्यताओं और सद्गुणों को अपनाया । यह ध्यान देने योग्य है कि सद्गुण सुखी जीवन के लिए साधनमात्र हैं, साध्य नहीं हैं । संस्कृत सुखवाद में कठिनाइयाँ - ऍपिक्यूरस के अनुसार सुख एकमात्र शुभ है और दुःख एकमात्र अशुभ है । व्यावसायिक बुद्धि बताती है कि उस सुख का त्याग करना चाहिए जिसका परिणाम दुःखप्रद है अथवा उसी दुःख को स्वीकार करना चाहिए जो अधिक सुख के लिए उपयोगी है। सद्गुण, नियम, रीति-रिवाज उपयोगी साधन हैं । व्यवसायात्मिक चिन्तन तथा शुभ प्राचरण तब तक अर्थशून्य और निरर्थक है जब तक कि वह कर्त्ता को सुख नहीं पहुँचाता । सुख के अर्थ मूलतः ऐन्द्रियक हैं । विलासिता से मुक्त नहीं - सुख को ऐन्द्रियक मानते हुए भी वह बौद्धिक की खोज करने को कहता है । बौद्धिक सुख अपने-आपमें शुभ नहीं है । वह सुख १२८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy