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________________ सद्गुणों के रूप में पाया । नैतिक सहज ज्ञान वंशानुगत गुण है । उपयोगितावादियों के विरुद्ध स्पेंसर कहता है कि नैतिक प्रदेश, उदाहरणार्थ 'चोरी नहीं करना चाहिए', 'झूठ नहीं बोलना चाहिए' प्रादि, इसलिए उचित नहीं हैं कि वे सुखप्रद हैं किन्तु इसलिए कि वे सामाजिक जीव- रचना के जीवन का संरक्षण करते हैं । स्पेंसर जब विशिष्ट व्यावहारिक नियमों की व्याख्या पर पहुँचता है तब वह अपने समय के लगभग सभी प्रचलित नियमों को स्वीकार कर लेता है— यथा, सच बोलना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, चोरी नहीं करना चाहिए, अश्लील पुस्तकें नहीं पढ़नी चाहिए श्रादि । इसका कारण यह है कि वह कट्टरपन्थी स्वभाव का था । समाज की व्याख्या-1 - विकासवादियों से पूर्व के विचारकों ने व्यक्ति प्रौर समाज के सम्बन्ध को समझना चाहा । इस सम्बन्ध को बाह्य मान लेने के कारण अथवा स्वार्थ और परमार्थ में विरोध मान लेने के कारण वे नैतिक धारणाओं के आदि कारण को नहीं समझा सके । हॉब्स ने कहा कि व्यक्ति के स्वार्थ और उसकी आवश्यकताओं ने उसे सामाजिक जीवन बिताने के लिए बाध्य किया । सामाजिक आचरण के मूल में स्वार्थ है। ह्य में और ऐडम स्मिथ ने कहा कि सहानुभूति या परस्पर की भावना ने ही नैतिकता की धारणा को जन्म दिया. है । वह सामान्य भावना है। नैतिकता का उद्गम हृदय की सामान्य भावना है । नैतिक गुण वह गुण है जो समाज के लिए हितकर है। मिल और बेंथम ने 'अधिकतम संख्या के लिए अधिकतम सुख' को नैतिक ध्येय बतलाया । एक बार यह स्वीकार कर लेने पर कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से भिन्न हैं, सामाजिक आचरण को समझाना असम्भव हो जाता है। उपयोगितावादियों ने समाज को व्यक्तियों के उस समुदाय के रूप में देखा जिसमें वैसी ही यान्त्रिक संगति है जैसी कि प्रणु-परमाणुभ्रों से संगठित जड़ पदार्थ में । किन्तु जब यह प्रश्न उठाया जाता हैं कि समाज के श्रात्म चेतन श्रणुत्रों ने अपने को एक-दूसरे से कैसे युक्त किया तो उपयोगितावादियों का स्पष्टीकरण काल्पनिक स्पष्टीकरण- मात्र रह जाता है । इस अणुवादी धारणा के बदले नृतत्वशास्त्र ने जीव - रचना एवं अंगी (organism) की धारणा दी है। उसने यह समझाया हैं कि मनुष्य और समाज का सम्बन्ध अनन्य है। यह जीव-रचना का सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध बाह्य नहीं है । सामाजिक जीव-रचना का विकास हो रहा है । यह विकासे एकता और विभिन्नता से सम्बद्ध एक अविभाजित पद्धतिक्रम है जहाँ कि समाज का विधान अथवा उसकी बनावट अधिक जटिल होती जा रही है और व्यक्ति विकासवादी सुखवाद / १८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only RA www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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