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मनोविज्ञान और जीवन के वास्तविक अनुभवों के आधार पर करना चाहिए, न कि अध्यात्मवाद के आधार पर । उसका क्षेत्र यथार्थवाद, अनुभववाद, वास्तविकवाद और प्रतिभासवाद तक ही सीमित रहना चाहिए। उसका पारमार्थिक सत्य से सम्बन्ध नहीं है। अपने विषय के लिए उसे व्यक्ति और मानवता के प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन पर ही निर्भर रहना चाहिए । इसमें कोई सन्देह नहीं कि नीतिशास्त्र का क्षेत्र तत्त्वदर्शन से अधिक सीमित है। अपने आदर्श के मापदण्ड के लिए तत्त्वदर्शन पर निर्भर होने पर भी वह मूलतः व्यावहारिक विज्ञान है। किन्तु विज्ञान और दर्शन में अन्तर प्रकार का नहीं, मात्रा का है । तत्त्वदर्शन नैतिक ज्ञान की अपूर्णता की पूर्ति करता है। कोई भी नैतिक सिद्धान्त मन को तब तक सन्तोष नहीं दे सकता है जब तक कि वह विश्व और विश्व में मनुष्य के स्थान के बारे में भी तर्कसम्मत ज्ञान का प्रतिपादन न कर ले। नैतिक मान्यताओं का व्यापक, गूढ़ और निश्चयात्मक ज्ञान दृश्यमान से परे पारमार्थिक सत्य पर निर्भर है । ईश्वर, आत्मा और विश्व का पूर्ण ज्ञान ही नैतिक आदर्श को प्रेरणात्मक बना सकता है, उसमें जीवन और गति का स्फुरण भर सकता है। नैतिक आदर्श कल्पना की सृष्टि नहीं है। यह मनुष्य की अनन्त सम्भावनाओं और पूर्णतानों तथा उसके देवत्व का सूचक है। वस्तुओं का तात्त्विक ज्ञान ही नैतिकता का सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण कर सकता है। वह नैतिक निर्णयों की प्रामाणिकता और वस्तुपरकता को समझा सकता है। मानव-जीवन का सारतत्त्व विश्व-सार-तत्त्व का अंग है, नैतिक व्यवस्था वैश्व व्यवस्था का अंग है, नैतिक प्रणाली वैश्व प्रणाली का अंग है।
६० / नीतिशास्त्र
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