SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आधार पर 'अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख' को ध्येय नहीं माना जा सकता। सर्वसामान्य के सुख को या तो मूलगत नैतिक नियम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, या उसे पूर्ण रूप से अर्थहीन सिद्ध किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक सखवाद का अन्त हॉब्स का परम स्वार्थवाद है। परम स्वार्थवाद नैतिक नियमों को आत्मगत मानता है, वस्तुगत नहीं। उपयोगितावादियों ने सहजज्ञानवादियों की भांति नैतिक नियम को वस्तुगत सत्य के रूप में स्वीकार किया और कहा कि सर्वसामान्य का अधिकतम सुख ही परम वांछनीय ध्येय है और यही कर्मों को भी शासित करता है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद के आधार पर उस ध्येय को स्वीकार करने के लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि वह कर्ता के अधिकतम सुख की वृद्धि करता है। सुखवाद अपने मूल रूप में स्वार्थमूलक और वैयक्तिक है। उपयोगितावादी कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की गणना एक है, प्रत्येक अपने लिए है। इस बात से वे यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि प्रत्येक सबके लिए है। उपयोगितावादी परमार्थवाद अथवा सार्वभौमिक सखवाद की स्थापना के लिए जिस निष्पक्षता की आवश्यकता है वह सहजज्ञानवाद द्वारा ही उसे प्राप्त हो सकती है। परमार्थ को भावनाओं पर आधारित नहीं कर सकते। भावनाएँ एक ओर तो आत्मगत और स्वार्थी होती हैं और दूसरी ओर परमार्थी तथा सहानुभूतिमूलक । इन दो विरोधी प्रवृत्तियों में बिना बुद्धि की सहायता के सामंजस्य स्थापित करना असम्भव है । अनुभव यह बतलाता है कि बुद्धि से अनिर्देशित भावनाएं व्यक्ति को सामाजिक बनाने के बदले वैयक्तिक बनाती हैं। मिल स्वार्थ से परमार्थ पर पहुंचने के लिए भावनाओं की सहायता लेता है। ताकिक प्रमाण, एकता की भावना तथा सहानुभूति द्वारा अपने सिद्धान्त को स्थापित करता है। उसके प्रयास यह सिद्ध नहीं कर पाते कि परमार्थ स्वार्थ के लिए हितकर है। भावना द्वारा वह निष्पक्षता भी सम्भव नहीं है जो सुख का वितरण करने के लिए आवश्यक है। उपयोगितावादियों ने अहन्तावादी स्वार्थवाद का प्रतिपादन किया है जो नैतिक दृष्टि से थोथा है। स्वार्थ से परमार्थ की उपजः असम्भव है। मिल गौरव के बोध' की शरण लेता है और अप्रच्छन्न रूप से सहजज्ञानवादियों की कृत्य बुद्धि (practical reason) को मानता है । यह सुखवाद का विरोध करना है। - नैतिक कर्तव्य तथा सद्गुण के लिए स्थान नहीं है-नैतिक सुखवादियों ने 'मनोवैज्ञानिक सुखवाद को मूलगत सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करने के कारण यह माना कि मनुष्य के स्वभाव का नियम सुख की खोज करना है । अतः यह सुखवाद (परिशेष) / १६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy