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________________ नैतिक आदेश कि 'तुम्हें सुख खोजना चाहिए' अर्थशून्य हो जाता है। यह वैसा ही है जैसा कि गिरते पत्थर से कहना कि 'तुम्हें गिरना चाहिए'। बैंथम स्पष्ट रूप से कहता है कि सुख-दुःख ही औचित्य और अनौचित्य के मापदण्ड को निर्धारित करते हैं । प्राकृतिक घटनाओं की भाँति मानव-कार्य-कलापों को 'कार्य और कारण' के अन्तर्गत समझ लेने पर मनुष्य भी अपने जीवन में उसी प्रकार अपने निर्दिष्ट ध्येय को प्राप्त कर सकता है जिस प्रकार वनस्पतियाँ, वक्ष, पशुपक्षी आदि अबौद्धिक और निर्जीव प्राणी प्राप्त करते हैं। वे सचेतन रूप से प्रयास नहीं करते, प्राकृतिक नियम उन्हें अपने-आप ध्येय की प्राप्ति करा देते हैं। किन्तु इस विरोध के होने पर भी सुखवादियों ने कर्तव्य के सापेक्ष और व्यावहारिक महत्त्व को समझाने का प्रयास किया। उसकी उत्पत्ति और आवश्यकता को समझाया । बैंथम के अनुसार चार बाह्य आदेश हैं जिनके कारण मनुष्य कर्तव्य करने के लिए बाधित होता है । मिल, स्पेंसर और बेन (Bain) ने आन्तरिक आदेश को प्रमुखता दी। कर्मों की उपयोगिता का अन्तर्बोध ही आदेश देता है, जो उनके अनुसार आन्तरिक आदेश है । स्पेंसर ने उसे यह कहकर समझाया कि विकास के क्रम में मनुष्य उस नियम को अपना लेता है अथवा उसका स्वेच्छा से पालन करता है जो प्रारम्भ में उसे वातावरण, परिस्थिति एवं समाज द्वारा दिया गया था अर्थात् बाह्य नियम कालक्रम में प्रान्तरिक नियम प्रतीत होता है। सुखवाद इस प्रकार कर्तव्य के मूल कारण को नहीं समझ सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर वह कर्तव्य को न्यायसम्मत तथा शाश्वत नहीं ठहरा सकता है। कर्तव्य एक व्यावहारिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। वह अपने-आपमें मूल्यरहित है। जिस भावना ने कर्तव्य की धारणा को जन्म दिया है वह आत्मगत और परिवर्तनशील है। वह कर्तव्य को उस परम आदेश के रूप में आरोपित नहीं कर सकती जो वस्तुगत और सार्वभौम है। सुखवाद के अनुसार कर्मों का प्रेरक कर्तव्य का विचार नहीं है। यहाँ तक कि यदि किसी अन्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कर्म किये जायें और उसका कर्तव्य की भावना से विरोध नहीं है तो वह कर्म उचित है । "वह व्यक्ति, जो दूसरे को डूबने से बचाता है, नैतिक रूप से उचित कर्म करता है। उसका ध्येय कर्तव्य करना है अथवा उस कर्म के लिए पुरस्कृत होना, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है।" सुखवादी सिद्धान्त मानव-चेतना के सम्मुख एक अत्यन्त तुच्छ आदर्श रखता है। वह यह न कहकर कि मनुष्य का क्या कर्तव्य है और वह संस्कृति १६२ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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