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________________ और सभ्यता के किस गौरव-शिखर तक पहुंच सकता है, यह बतलाता है कि स्वार्थपूर्ण ध्येय की पूर्ति के लिए व्यावसायिक बुद्धि किस चाणक्य-नीति को अपनाती है। उसके अनुसार कर्तव्य लाभप्रद साधनों का सूचक है। व्यावसायिक बुद्धि का नाम सदगुण है। नैतिकता प्रात्मस्वार्थ का प्रतिनिधित्व करती है। नैतिक चेतना सूख की वह भावना है जो सदैव लाभप्रद और उपयोगी नियमों को चुनती है। शुभ और अशुभ का भेद सापेक्ष है। व्यावसायिक बुद्धि की योग्यता और अयोग्यता ही शुभ-अशुभ को निर्धारित करती है। नैतिकता का तत्त्वार्थ यह है कि शुभ और अशुभ का भेद सिद्धान्त का भेद है। सुखवाद नैतिकता को समझाने के बदले उस प्रश्न से ही कतरा जाता है । वह मनुष्य की स्वस्थ नैतिक चेतना को नहीं समझा पाता। यह सत्य है कि योग्य प्रबुद्ध व्यक्तियों ने उसे सिद्ध करने का प्रयास किया, किन्तु फिर भी यह सिद्धान्त अपने वास्तविक रूप में सरल शुद्ध सद्विचारों को मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाता सुखवादी गणना असम्भव-बैंथम ने 'नैतिक गणित' को स्वीकार करके यह समझाया कि अशुभ कर्म नैतिक गणित की भूल के सूचक हैं । उसका यह विश्वास था कि सुख को तौल सकते हैं। उसका निश्चित और समान रूप से प्रत्येक में वितरण किया जा सकता है । उपयोगितावादियों के अनुसार सुख उस भावनात्मक मुद्रा के समान है जिसकी गणना की जा सकती है और जिसका अंशों एवं भागों में वितरण सम्भव है, अर्थात् उनके अनुसार सुख का मूल्य निरपेक्ष और व्यक्ति की रुचि से स्वतन्त्र है। उनकी यह 'नैतिक गणना' भ्रान्तिपूर्ण है। सख उन रुपयों-पैसों की भाँति नहीं है जिनका कि हिसाब रखा जा सकता है, जिनकी कि निरपेक्ष गणना सम्भव है। सुख भावनामात्र है । यह भावना सापेक्ष और प्रात्मगत है। इसका कोई वस्तुपरक आधार नहीं है। यह विभिन्न मानसिक और भौतिक स्थितियों की सूचक है और परिस्थिति, मनोदशा तथा स्वभाव पर निर्भर है। एक ही वस्तु एक ही व्यक्ति के लिए दो भिन्न परिस्थितियों के अनुरूप सुखप्रद और दुःखप्रद हो सकती है। सुख का अपनी उत्पादक वस्तु से तथा व्यक्ति की रुचि से अनिवार्य सम्बन्ध है। सख को जोड़ नहीं सकते हैं। उसका परिमाणात्मक मूल्य आँकना अव्यावहारिक है। मिल ने गुणात्मक भेद को मानकर एक नयी कठिनाई उत्पन्न कर दी। गुणों की तुलना राशियों से करना तब तक संगत नहीं है जब तक कि किसी भाँति उनको राशियों में परिणत न किया जा सके । मिल गुण और राशि दोनों को ही मानता है, किन्तु सुखवाद (परिशेष) | १६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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