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________________ करके एकांगी तथा भ्रमपूर्ण विचारों से ऊपर मानवता की स्थापना करता है. और इस परिणाम पर पहुँचता है कि प्रेम, स्नेह, एकता और समानता का Safer करनेवाला धर्म, धर्म नहीं है । वह भाग्य और थोथे धर्म की दुहाई देनेवाले पण्डितों को धार्मिक कहता है | मंगलमय जीवन के हत्यारों को वह नैतिकता अथवा विवेकसम्मत कर्तव्य की चुनौती देता है । फिर भी नीतिशास्त्र के आलोचक उसे अधार्मिक कहते हैं । इसका एकमात्र कारण यह है कि कर्मों के महत्व के बारे में चिन्तन एवं विश्लेषण करना प्राचीन परम्परा की स्वाभाविक एवं सामान्य प्रवृत्ति नहीं थी । दार्शनिक जिज्ञासा से शून्य चिन्तनहीन प्रवृत्ति के लोग अपनी सुप्त और प्रालसी प्रवृत्ति को जगाने के बदले नीतिशास्त्र के आलोचक बन जाते हैं और उसे अधार्मिक कहकर सन्तोष करते हैं । पर वास्तव में नीतिशास्त्र विवेकसम्मत धर्म है । वास्तविक और उपयोगी - श्रालोचकों का यह भी कहना है कि नीतिशास्त्र श्रवास्तविक है । जीवन सत्य से परे होने के कारण वह तत्कालीन सामाजिक श्रौर राजनीतिक गुत्थियों को नहीं सुलझा सकता है । वह वास्तविक तथ्यों की खोज नहीं करता है । वर्तमान कर्तव्यों की रूपरेखा नहीं बनाता है । वह तात्कालिक को महत्त्व देने और उसकी चिन्ता करने के बदले उन नियमों की खोज करता है जो कि उसके अनुसार भविष्य में आनेवाली आदर्श सामाजिक व्यवस्था के लिए आवश्यक हैं। उनके अनुसार उसकी नींव काल्पनिक होने के कारण उसकी उपयोगिता सन्दिग्ध है । ऐसी आलोचना के द्वारा ये श्रालोचक-गण उसके मूल सिद्धान्त से अपनी अनभिज्ञता ही प्रकट करते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि नीतिशास्त्र आदर्श - विधायक विज्ञान है । किन्तु इसके यह अर्थ कदापि नहीं होते कि वह बच्चे के दिवास्वप्न की भाँति है । नीतिज्ञ कल्पना की उड़ान नहीं भरता, वह उस नैतिक आदर्श की खोज करता है जो जीवन के ठोस वास्तविक सत्य पर प्राधारित है । मानव जीवन को सुखी और सुसंस्कृत बनाने के अभिप्राय से वह विभिन्न विज्ञानों और कलानों का अध्ययन करता है; दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश करता है और मनुष्य तथा विश्व के बारे में सर्वांगीण ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् ही वह मानवीय गौरव से युक्त नियम अथवा नैतिक नियम बनाता है । इन नियमों का आवश्यकताओं एवं देश, काल, परिस्थिति के साथ परिवर्तन होना अनिवार्य है । अतः परम्परानुगत नियमों का पालन करना मनुष्य के विकास एवं उन्नति के लिए हानिप्रद है । नीतिशास्त्र एक ऐसे मापदण्ड को प्राप्त करने का प्रयास करता है जिसके आधार नैतिक समस्या | २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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