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विद्वानों और कलाकारों में देखते हैं । वह व्यक्ति, जो अपने क्षेत्र में योग्यता प्राप्त कर लेता है अथवा वह व्यक्ति जो किसी अच्छे काम को अच्छी तरह कर लेता है, विशिष्ट गुणसम्पन्न व्यक्ति है । विशिष्ट गुण अपने-आपमें अच्छे हैं । वे समृद्ध समाज के लिए आवश्यक हैं। विशिष्ट गुणों में पारस्परिक भेद सम्भव हो सकता है । यह आवश्यक नहीं कि एक अच्छा गायक एक अच्छा चित्रकार अथवा एक अच्छा चित्रकार एक अच्छा लेखक भी हो । विशिष्ट गुण प्रतिभा का परिणाम है और सामान्य बोध यह मानता है कि वह भगवान् प्रदत्त है । यह अवश्य है कि प्रयास द्वारा इस प्रतिभा को अधिक विकसित कर सकते हैं । यही नहीं, यदि विशिष्ट गुण सम्पन्न व्यक्ति अथवा लेखक कुछ काल के लिए अनिवार्य कारणोंवश (शारीरिक रोग, मानसिक आघात, प्रेरणा प्राप्त न कर सकने के कारण, आदि) अपना काम न करे तो वह क्षम्य है । नैतिक गुण का होना प्रत्येक सम्माननीय नागरिक के लिए आवश्यक है । संयम, न्याय, दया आदि सद्गुण नाममात्र से भिन्न हैं । वास्तव में वे एक ही सद्गुण की अभिव्यक्ति हैं क्योंकि सद्गुण एक है । नैतिक सद्गुण सम्पूर्ण चरित्र की वह अभिरुचि है जो कि निरन्तर कार्यान्वित रहना चाहती है । प्रत्येक परिस्थिति में जो सबसे अधिक उत्तम है उसे शुभ चरित्र खोजता है । उसके लिए सब कर्म अपनेआपमें साध्य हैं एवं परम शुभ के लिए साधन हैं। जिस भाँति भूखा व्यक्ति एकमात्र भोजन चाहता है उसी भाँति सद्गुणी एकमात्र नैतिक आदर्श का भूखा है | चाहे पत्थर बरसे या बिजली गिरे उसे अपने कर्म से छुट्टी नहीं मिल सकती ।
सद्गुण - परम्परागत और विवेकसम्मत – नैतिक सद्गुण दो रूपों में दीखता है— परम्परागत और विवेकसम्मत । जनसामान्य उस व्यक्ति को सद्गुणी मानता है जो प्रचलित नैतिक नियमों और परम्पराम्रों का सदैव पालन करता है; जो दयालु, संयमी, सम्माननीय, न्यायशील और उद्योगी है । किन्तु नैतिक दृष्टि से स्वीकृत नियमों का पालन मात्र करना अपने को यन्त्र बना लेना है । नैतिकता उचित नियमों के अन्ध-पालन की अपेक्षा नहीं रखती । वह उचित नियम द्वारा उस ध्येय को पालन करने की श्राशा रखती है जो कि विवेकशील व्यक्ति के लिए वांछनीय है । अतः नैतिक सद्गुण वह अभ्यासगत प्रवृत्ति है जो सदैव चेतन रूप से उन ध्येयों की प्राप्ति के लिए प्रयास करती है जो श्रेष्ठ और वांछनीय हैं । यह अवश्य व्यक्ति की योग्यता, प्रतिभा, लगन और व्यक्तित्व पर निर्भर है कि वह कहाँ तक ध्येय को समझ सका है। ध्येय के स्वरूप का जिज्ञासु
८२ / नीतिशास्त्र
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