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________________ अभ्यास हो जाता है और कर्तव्य उसका अभ्यास बन जाता है तब वह श्रेष्ठ चरित्र (सदाचार या सदगुण) को प्राप्त कर लेता है। सदगूण चरित्र की श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का सूचक है और दुर्गुण दुर्बलता तथा दोष का । सद्गुण चरित्र के प्रान्तरिक से आन्तरिक स्वरूप को अभिव्यक्ति देता है। अनेक शुभ कर्मों की पुनरावृत्ति से व्यक्ति इसे अजित कर लेता है। यह चरित्र का वह स्वभाव, गुण या अजित प्रवृति है जो स्थायी है। चरित्र का गुण होने पर भी कर्मों और प्रेरणानों के लिए इसका प्रयोग किया जाता है । यह शुभ कर्म का सूचक है। श्रेष्ठ चरित्र कर्म द्वारा अपने को व्यक्त करता है। कर्तव्य का सम्बन्ध भी कर्म-विशेष से है। कर्तव्य-बोध की चेतना से युक्त व्यक्ति सच्चरित्र होते हैं । कर्तव्य का अभ्यास शुभ चरित्र का निर्माण करता है और शुभ चरित्र ही कर्तव्य है। यदि व्यक्ति अपने चरित्र का उत्थान चाहता है तो उसे चाहिए कि वह बारम्बार कर्तव्य के मार्ग को पकड़े क्योंकि कर्तव्य करने की अनवरत पेष्टा एवं अभ्यास सच्चरित्र का जनक है । कर्तव्य को अपनाने के लिए प्रालस्य और असावधानी का त्याग आवश्यक है अन्यथा अनायास ही व्यक्ति दुर्गुण को अपना लेगा। सच्चरित्र की स्थापना के लिए कर्म से युक्त होना पड़ता है। दढ़ संकल्प, सतर्क चिन्तन, शुभ मार्ग को अपनाने की उत्कट प्रेरणा, कठिनाइयों से न डरना आदि सच्चरित्र की ओर ले जाते हैं। जब धीरे-धीरे कर्तव्य करना मनुष्य का स्वभाव हो जाता है तो कर्तव्य सहज और आनन्दप्रद हो जाते हैं। अतः कर्तव्य ज्ञान और संकल्प-स्वातन्त्र्य की अपेक्षा रखता है । कर्तव्य न करनेवाला व्यक्ति दोषी है। नैतिक दुर्गुण मानवीय संकल्प पर निर्भर है। व्यक्ति प्रकर्तव्य के लिए उत्तरदायी है। परपी एवं दुर्गुणी जान-बूझकर कर्तव्य नहीं करता है। किन्तु कई बार ऐसा भी हो जाता है कि कर्तव्य का इच्छुक व्यक्ति अनुचित मार्ग को अपने भ्रमपूर्ण चिन्तन के कारण अपना लेता है । ऐसी स्थिति में चिन्तन को भ्रान्तिपूर्ण कहने पर भी व्यक्ति को दोष नहीं देते । व्यक्ति हृदय से सद्गुणेच्छु है । उसके स्वभाव और संकल्प का झुकाव सद्गुण की अोर है यद्यपि चिन्तन भ्रमपूर्ण है। नैतिक दृष्टि से सद्गुण को विशिष्ट गुण के रूप में नहीं समझ सकते क्योंकि वह चरित्र का स्वभाव या गुण है । ऐसा कथन बतलाता है कि सद्गुण का प्रयोग दो अर्थों में होता है-नैतिक सद्गुण और विशिष्ट सद्गुण । विशिष्ट सदगुण को हम उस अभिरुचि के रूप में समझ सकते हैं जो स्वेच्छित कर्म द्वारा किसी विशेष शुभ ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करती है। इसे हम अच्छे नैतिक प्रत्यय / ८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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