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________________ सदैव वस्तुगत नैतिक मानदण्ड की सहायता से अपने मानदण्ड को सुधार सकता है । सम्यक् मानदण्ड को समझने के लिए श्रात्मगत और वस्तुगत एवं वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों का उचित सन्तुलन अनिवार्य है । व्यक्ति और समाज दोनों के हित की समान रूप से वृद्धि करने की प्रवृत्ति का सामान्य रूप ही नैतिक सद्गुण है । इसका रूप समय और काल के अनुसार परिवर्तित होता है । नैतिक सद्गुण और विशिष्ट सदगुण में परम भेद देखना व्यर्थ है । नैतिक सद्गुण विशिष्ट सद्गुणों द्वारा अभिव्यक्ति पाते हैं और विशिष्ट सद्गुण 'नैतिक' सद्गुण द्वारा ही स्थायी मूल्य पाते हैं । यदि उन व्यक्तियों और संस्थानों के लिए नैतिक सद्गुण - दया, दान, न्याय आदि - सहायक नहीं हैं जो वास्तव में योग्य पात्र हैं और जो उचित सहायता पाकर अपनी प्रतिभा और विशिष्टता को प्रस्फुटित कर सकते हैं तथा समाज के जीवन को संस्कृत, सभ्य और कलात्मक बनाने में सक्रिय योग दे सकते हैं तो नैतिक सद्गुण व्यर्थ और अमूर्त जायेंगे । कला और साहित्य का स्थायी मूल्य इस पर निर्भर है कि वे अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को कहाँ तक निभा सके हैं। यदि चित्रकार की तूलिका और लेखक की लेखनी सामाजिक जीवन को सुन्दर और मंगलमय बनाने में असमर्थ है तो वह श्रेष्ठ नहीं है । पाप और पुण्य - गुण एक व्यापक प्रत्यय है जिसके अन्दर पाप और पुण्य हैं | अपने स्वरूप के अनुरूप वह पाप और पुण्य का सूचक है । चरित्र की भावात्मक नैतिक श्रेष्ठता पुण्य है और अभावात्मक नैतिक योग्यता पाप है । यदि पहला यह बतलाता है कि चरित्र नैतिक दृष्टि से कितना मूल्यवान् है तो दूसरा उसके नैतिक ह्रास का ज्ञान देता है । वास्तव में पाप और पुण्य चरित्र के गुण हैं । चरित्र के नैतिक स्वरूप को व्यक्त करने के लिए ही इनका प्रयोग करते हैं । ये दोनों कर्म द्वारा चरित्र को अभिव्यक्ति देते हैं । उचित कर्म एवं पुण्य, चरित्र की श्रेष्ठता का सूचक है और अनुचित कर्म एवं पाप, चरित्र के दोष का । उचित और अनुचित के आधार पर भी पाप और पुण्य को समझा जा सकता है । जब कर्म उचित एवं नैतिक मानदण्ड के अनुरूप है तो वह पुण्य है और अनुचित पाप है । दोनों प्रत्ययों का ऐसा भेद बतलाता है कि चरित्र के नैतिक विकास के बिना पुण्य सम्भव नहीं है । ऐसे कर्म स्वतन्त्र संकल्प पर निर्भर हैं । जब विवेकी व्यक्ति स्वेच्छा से कर्तव्य के मार्ग को अपनाता है, तब वह अपने कर्म द्वारा नैतिक प्रत्यय / ८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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