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________________ सम्बन्धी धारणा का दानवीय रूप है। ग्रादिकालीन यूनानी संस्कृति का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे लोग व्यक्ति एवं नागरिक के चरित्र के उत्थान के लिए अच्छी परिस्थितियों का निर्माण करने में विश्वास करते थे । नीत्से बाल्यकाल ही से इस बात से प्रभावित था कि व्यक्ति को महत्ता देनी चाहिए | बड़े होकर उसने अपने दर्शन में इसी विचारधारा को एक नवीन एवं पाशविक रूप दिया । उसके अनुसार “ मनुष्य जाति को सदैव महापुरुषों को उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए - इसके अतिरिक्त उसका और कोई दूसरा कर्तव्य नहीं है ।" उसका कहना था कि मानव को प्रतिमानव बनाने के लिए, प्रतिमानवों के उत्थापन और संवर्धन के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ प्रतिमानवों का प्रादुर्भाव हो सके । अतः वह कहता है कि ' अतिमानव का संवर्धन' (The rearing of the Superman ) करना मनुष्य का कर्तव्य है और उसके लिए 'समस्त मान्यताओं का पुनर्मूल्यीकरण' (Transvaluation of all Values) श्रावश्यक है । समर्थ की जीवन- विजय के प्राकृतिक एवं जैव नियम को नैतिक रूप देने के लिए मनुष्य को पुराने आदर्शों को छोड़ देना चाहिए । मानवों को प्रतिमानव बनाने के लिए उन्हें नवीन प्रौर उच्च आदर्शों द्वारा शिक्षित करना चाहिए । नैतिक और शिष्ट गुणों को वास्तविक रूप देने के लिए मानव जाति को अपना अतिक्रमण तथा रूपान्तर करने का प्रयास करना चाहिए और उसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य संघसदाचार तथा मध्यवर्गीय विचारधारा का त्याग कर नवीन मान्यताओं को स्वीकार करे | मान्यताओं एवं नैतिक नियमों का मूल आधार 'प्रभुत्वप्राप्ति की महदाकांक्षा' है । इसी की अभिवृद्धि के लिए अथवा प्रतिमानवों के संवर्धन के लिए नीत्स ने नवीन मान्यतानों की और मानव जाति का ध्यान आकृष्ट किया। उसका कहना था कि प्राचीन मान्यताएँ प्रतिमानव के संवर्धन में सहायक नहीं होतीं। उन मान्यताओं के जीर्ण मृत रूप को समझाने के लिए उसने धर्म और नीति के मूलतत्त्वों की उपेक्षा और उपहास किया और ईसाई धर्म, उपयोगितावादी नैतिकता तथा सोद्देश्य नैतिकता की आलोचना कर अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । नीत्से का नैतिक सिद्धान्त प्रमुख रूप से हमें उसकी पुस्तक, 'शुभ अशुभ से परे' ( Beyond Good and Evil) में मिलता है । इस पुस्तक द्वारा उसने नीतिशास्त्र को एक नवीन सिद्धान्त दिया है । इसमें उसके नैतिक दर्शन के महत्त्वपूर्ण अंश वर्तमान हैं | उसने अपनी पूर्वगामी सिद्धान्तों की चिन्तनप्रणालियों की आलोचना ३१० / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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