SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आर्थिक पक्ष की ओर से हम उदासीन नहीं रह सकते । जीवन की इस मूलगत आवश्यकता की ओर गांधीजी ने संकेत करते हुए कहा कि वे भूखों को धर्म का सन्देश नहीं दे सकते । धार्मिक विचारक भी यह मानते हैं कि 'भूखे भजन न होइ गुपाला' । भूखा मनुष्य एक ओर तो नरभक्षी तक बन जाता है और दूसरी ओर भोजन का प्रभाव उसे असहाय तथा निःशक्त बना देता है | मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए तथा उसकी सांस्कृतिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए शारीरिक सुख आवश्यक है । भोजन, वस्त्र और निवास का अधिकार मूलगत और जन्मसिद्ध है । किन्तु मार्क्स ने ऐसी मूलगत आवश्यकता की तृप्ति के लिए जिस साधन ( रक्तक्रान्ति) को अनिवार्य बतलाया है वह उतना ही निर्मम है जितना वह वर्ग जिसे कि वह मिटाना चाहता है । साध्य साधन का प्रश्न - प्रार्थिक समानता की स्थापना के लिए मार्क्स जिस साधन को अपनाता है वह मानवोचित नहीं है । मनुष्य की नैतिक चेतना एक ऐसे पथ को नहीं अपना सकती जो रक्तपंकिल हो । 'खून का बदला खून', यह कथन सामाजिक कल्याण के इच्छुक अथवा समानता और भ्रातृत्वभावनावाले व्यक्ति के लिए मान्य नहीं है । नैतिक जीवन में साधन और साध्य, दोनों की पवित्रता अनिवार्य है । अशुभ साधन द्वारा प्राप्त शुभ ध्येय अशुभ और वांछनीय है । मार्क्स ने अपने साधन को केवल रक्तक्रान्ति और वर्गयुद्ध से सम्बन्धित रखा । इसे हम मार्क्स के युग की सीमा मान सकते हैं क्योंकि उसके युग में पूँजीवाद अपने चरम शिखर पर था । अतः प्राज का दृष्टिकोण वर्गयुद्ध को मार्क्स के युग के विराट् संघर्ष का एक राजनीतिक चरणमात्र मान सकता है । श्रान्तरिक चेतना अनिवार्य - अर्थभित्ति पर मार्क्स उस नवीन सामाजिक सम्बन्धको वास्तविकता देना चाहता है जो समानता, भ्रातृत्व-भावना और स्वतन्त्रता का मूर्तिमान् स्वरूप है । वास्तविक जीवन का अध्ययन, मनोवैज्ञानिक संचय और चेतना का तात्विक स्वरूप बतलाता है कि प्रार्थिक स्थिति ग्रान्तरिक 'चेतना का मार्गनिर्देशक नहीं बन सकती । बाह्य परिवर्तन से प्रान्तरिक परिवर्तन का प्रयास उलटी गंगा बहाना है। किसी भी शुभ कर्म के लिए आन्तरिक शुद्धता अनिवार्य है । जब मानव चरित्र किसी सत्य को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेता है तो वह अवश्य ही कर्म द्वारा व्यक्त होता है। सच तो यह है कि पारस्परिक एकता और स्नेह की चेतना सहज रूप से त्याग और प्रार्थिक समानता के रूप में प्रकट होती है, न कि प्रार्थिक समानता मानसिक समानता के रूप | आर्थिक विषमताजन्य अत्याचारों को आदर्शवादियों और अध्यात्मवादियों ३०२ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy