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________________ इन नियमों का सम्बन्ध आचरण के बाह्य पक्ष से है। कर्म और परिणाम ही निर्णय का लक्ष्य है। वास्तव में धनात्मक नियम या धनात्मक नैतिकता प्रचलनों, रीति-रिवाजों, विचारशन्य परम्पराओं पर आधारित होती है। मानवजीवन की विभिन्न स्थितियों ने ही जाने-अनजाने में उसे जन्म दिया है। उसकी कम विकसित बुद्धि ने अपनी शक्ति, ज्ञान और आत्मचेतना के अनुरूप भौतिक, दैहिक, सामाजिक, भौगोलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त नियम बनाये। तत्पश्चात् भय, विश्वास तथा अभ्यासवश वह उन्हीं का यन्त्रवत् पालन करने लगा। ऐसे अनेक नियम अथवा बाह्य आदेश हैं जिनका वह पालन करता है और साथ ही जिन्हें अनिवार्य मानता है। वे प्राकृतिक नियम, जाति के नियम, सामाजिक नियम, राजसत्ता के नियम, अधिकारी एवं शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा बनाये गये नियम इत्यादि हैं। उनके अतिरिक्त उसने शास्त्र, श्रुति, पण्डित, साधु-सन्तों के आदेशों को भी अनिवार्य माना। इन अनेक आदेशों का पालन उसने हर्ष और उत्साह के साथ किया और अब भी कर रहा है। प्रचलित नैतिकता का मानव-जाति चेतना-सभ्यता का प्रथम चरण बाह्य-नियमों अथवा प्रचलित नैतिकता का चरण था। उस समय का व्यक्ति झुण्ड का सदस्य था। उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था। वह प्रचलनों, रूढ़ि-रीतियों और नियमों के जगत् में रहता था। उसका विश्व जाति का विश्व था। उसके नैतिक निर्णय झुण्ड, जाति एवं समाज के प्रचलनों को अभिव्यक्ति देते थे। जाति के आचरण का अनुकरण करना उसका कर्तव्य था। सामाजिक व्यवस्था के नियमों का पालन करना उसका एकमात्र ध्येय था। जाति-चेतना उसे शासित करती थी। उसकी विवेकशक्ति एवं विधि-निषेधात्मक बुद्धि ने अपना व्यक्तित्व तथा अपनी स्वतन्त्रता जाति-चेतना में खो दी थी । जाति-चेतना ही उसके कर्मों तथा अन्य व्यक्तियों के कर्मों पर निर्णय देती थी। जाति की भलाई तथा उसके सम्मान की रक्षा ही उसके जीवन का ध्येय था। उसके नियमों का अन्धानुकरण ही नैतिकता थी। वह यह मानता था कि प्रचलित रीति के अनुरूप कर्म ही उचित और शुभ कर्म है। प्रौचित्य-अनौचित्य का परममापदण्ड जाति ही है । जाति के नियमों में अनन्य श्रद्धा और विश्वास रखना अनिवार्य है। अतः उन नियमों के विरुद्ध कुछ करना तो दूर रहा, वह उनके विरुद्ध सोचने तक की कल्पना नहीं कर सकता था । वास्तव में व्यक्ति के लिए प्रचलित नैतिकता का राज्य तानाशाही राज्य था। वह उसकी स्वतन्त्र तर्कबुद्धि को विकसित करने के बदले उसे कुण्ठित कर देती है । प्रचलित नैतिकता नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) | १०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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