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पवित्रता और चरित्र को । अतः नैतिक नियम अपने अभ्युदय काल में बाह्य आरोपित नियम थे, न कि आत्म- आरोपित । उन्होंने आचरण के बाह्य पक्ष पर निर्णय दिया, न कि आन्तरिक पक्ष पर ।
ऐतिहासिक स्पष्टीकरण : अस्थिर जीवन नैतिक नियम की सर्वप्रथम वह स्थिति मिलती है जबकि व्यक्ति हेरियों का जीवन बितांता था । प्राकृतिक श्रावश्यकताएँ उसके जीवन को संचालित करती थीं, उसके कर्म अधिकतर आवेग - जन्य होते थे । वे दूरदर्शिता से रहित, चिन्तनहीन, परिणाम के विचार से मुक्त थे । ऐसे कर्मों को केवल वैयक्तिक आवेगों से प्रेरित कहना भी उचित नहीं है । उस युग का व्यक्ति अपनी जाति, समुदाय अथवा झुण्ड का सदस्य था । 'अनुकरण और संकेत' का उसके जीवन में स्थान था । जो कुछ भी उसने देखा उसे उसी रूप में सहज भाव से स्वीकार कर लिया । वह जाति के प्रचलनों, रीति-रिवाजों से बद्ध था और प्राकृतिक शक्तियों के उत्पातों से भयभीत था । वह अपने दल के मुखिया के प्रदेश को परम प्रदेश मानता था ।
स्थिर जीवन; नियमों का जन्मदाता : प्रचलित नैतिकता - धीरे-धीरे वह इस अस्थिर अवस्था से ऊपर उठा । उसने व्यवस्थित जीवन से प्राचरण के विशिष्ट नियमों को जन्म दिया । किन्तु नियमों का निर्माण करने पर भी वह प्रचलनों से ऊपर नहीं उठ सका । वास्तव में नियम द्वारा उसने प्रचलनों को ही स्पष्ट रूप दिया । अतः नियम अपने मूल रूप में प्रचलन ही हैं। जैसा कि प्रथम अध्याय में कह चुके हैं एथॉस एवं मौरेस शब्द प्रचलन के सूचक हैं । समुदायों, जातियों और राष्ट्रों की नैतिकता के निर्माण में इन प्रचलनों का अत्यधिक योग रहा है । इतना अवश्य है कि जब प्रचलन नियम बने तो उनमें अनायास ही कुछ परिवर्तन आ गये । उदाहरणार्थ, जब हत्या श्रादि दुष्कर्मों के लिए दण्डविधान बना तो प्रतिशोध, द्वेष श्रादि की धारणाओं को न्याय की अस्पष्ट धारणा ने वृत कर दिया। नियमों का यह युग प्रचलित नैतिकता (Customary morality) का युग था । नियम और प्रचलन से निर्देशित आचरण नैतिक आचरण है ।
उसके विभिन्न रूप — प्रचलित नैतिकता ही धनात्मक नैतिकता (Positive morality) के रूप में प्रकट होती है । यह धनात्मक नियमों को जन्म देती कल्याण के लिए जनसमाज, जाति या देश
| धनात्मक नियम वह नियम हैं जिन्हें समाज के समुदाय स्वीकार करता है अथवा वे नियम जिन्हें कोई अपने समय के कर्मों के सदसत् को निर्धारित करने के लिए स्वीकार करता है ।
१०२ / नीतिशास्त्र
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