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________________ दण्ड एक ही है। यदि पूछा जाय कि मानव-विकास में ध्येय और नियम में कौन-सा मापदण्ड पूर्वनिर्धारित हुआ तो प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत होता है कि नियम का मापदण्ड ही पहला मापदण्ड है। नियम के स्रोत पर ध्यान देने पर यह भ्रान्ति दूर हो जाती है और यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप में नियम से पहले ध्येय का अस्तित्व अनिवार्य है। बिना ध्येय के नियम का निर्माण सम्भव नहीं है । नियम ध्येय का अनुगामी है, पूर्वगामी नहीं हो सकता । आदि काल में लोगों ने व्यक्ति, समाज एवं समुदाय की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही नियमों का निर्माण किया। उनकी चेतना ने जिन नियमों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उपयोगी माना, आज की नैतिक चेतना उन नियमों को अनुपयोगी, अहितकर तथा हानिप्रद कह सकती है; किन्तु, आदिम चेतना का मानव जिन भौतिक परिस्थितियों, जिस वातावरण तथा जीवन-यापन के जिन साधनों के बीच रहता था एवं उस समय उसका जो मानसिक-कायिक अस्तित्व था, वह तब उनसे अधिक स्वस्थ नियम नहीं बना सकता था। उस समय की अविकसित चेतना ध्येय के स्वरूप को अधिक निश्चित एवं स्पष्ट कर सकने में असमर्थ थी। ध्येय, नियमों की प्रामाणिकता, कर्तव्य, अधिकार, उत्तरदायित्व आदि के बारे में न तो वह सचेत थी और न उसे इनके बारे में कोई जिज्ञासा ही थी। उसने झुण्ड, जाति एवं समुदाय के लिए हितकर नियमों को स्वभावतः ही अनायास रूप से अपनाया। वह उसकी नैतिक चेतना की सम्भावित स्थिति थी। आज की विकसित चेतना की तुलना में वह अविकसित, अर्धव्यक्त तथा सुप्त थी। नैतिक प्रदेश बाह्य प्रदेश एवं नियम अथवा बाह्य प्रादेश के रूप में प्रकट हा–प्राकृतिक और देवी शक्ति-ध्येय की पूर्ति के लिए ही नियम बनाये गये जो निर्माणात्मक दृष्टि से ध्येय के लिए साधनमात्र थे। किन्तु व्यावहारिक जीवन में उन्हें ही प्रधानता मिली; अपने आचरण में व्यक्ति ने उन्हीं को प्रमुख माना । यही कारण है कि सर्वप्रथम नैतिक आदेश बाह्य आदेश के रूप में प्रकट हुा । नैतिकता की अभिव्यक्ति सर्वत्र विभिन्न देश-कालों में इसी रूप में हुई। व्यक्तियों एवं जातियों की सहज-प्रेरणाओं, आवेगों और इच्छाओं पर उसकी नैतिक-आत्मा ने नियन्त्रण नहीं रखा, किन्तु बाह्य शक्तियों ने अर्थात् प्राकृतिक, सामाजिक, देवी आदि शक्तियों ने उसे नियन्त्रित रखा । इन शक्तियों ने बाह्य आदेशों के रूप में स्वाभाविक प्रवत्तियों का दमन किया। इस स्थिति में कर्म और परिणाम को महत्त्व दिया गया, न कि प्रेरणा की नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) / १०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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