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________________ उसके लिए विशिष्ट अर्थ है । व्यक्तियों को समुदाय में परिणत नहीं कर सकते हैं । समुदाय व्यक्ति नहीं है । व्यक्तियों को जोड़ नहीं सकते हैं और न उनके सुखों को जोड़ सकते हैं । सुखों को जोड़ना उतना ही हास्यास्पद है जितना यह कहना कि कक्षा में दस विद्यार्थी हैं। प्रत्येक पांच फीट लम्बा है, अतः विद्यार्थियों की लम्बाई पचास फीट है । अथवा तर्क द्वारा व्यक्तिगत सुख से जनसमुदाय के सुख को सिद्ध नहीं किया जा सकता। मनोवैज्ञानिक प्रमाण : स्वार्थ से परमार्थ-मिल मनोविज्ञान की भी शरण लेता है। स्वार्थ और परमार्थ में सामंजस्य स्थापित करके मिल पारमाथिक प्रवृत्तियों, प्राचरण और कर्म को समझाता है । वह मानता है कि मनुष्य स्वभावतः स्वार्थी है। उसका स्वार्थ-आत्मसख की लालसा-उसे सुखप्रद कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए ही वह दूसरों से सहानुभूति रखता है। इस क्रिया को दोहराते रहने से कालक्रम में सहानुभूति उसके स्वभाव का अनिवार्य अंग बन जाती है । सहानुभूति मनुष्य की ज्ञान और अनुभव द्वारा उपाजित विशेषता है। सुसंस्कृत, सहृदय अथवा सहानुभूतिपूर्ण मनुष्य जनसमुदाय के सुख के लिए प्रयास करते हैं। 'विचार साहचर्य का नियम' यह बतलाता है कि प्रयत्नों की पुनरावृत्ति के कारण साधन और साध्य के बीच तादात्म्य स्थापित हो जाता है । वैयक्तिक सुख सामाजिक सुख से युक्त हो जाता है और उसके परिणामस्वरूप मनुष्य की रुचि में परिवर्तन हो जाता है । जिन कर्मों को मनुष्य ने अभी तक अपने सुख के लिए साधन माना था, वे साध्य से बारम्बार युक्त होने के कारण उसी का स्थान प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार मनुष्य दूसरों के सुख में सुख मानने लगता है एवं • स्वार्थ से परमार्थ की उत्पत्ति होती है । 'मिल यहाँ पर सहानुभूतिमूलक सुखवाद (sympathetic hedonism) को प्रतिपादन करता है। मिल यह भी मानता है कि प्रारम्भ में सदगुण करते समय मनुष्य सुखप्रद परिणाम के बारे में सचेत रहता है। किन्तु बाद में पुनरावृत्ति के कारण सुख सद्गुण के साथ युक्त हो गया। मनुष्य को सद्गुण करने में तत्कालीन सुख मिलने लगा। आन्तरिक प्रादेश : सजातीय भावना-सद्गुण ही साधन से साध्य का रूप प्राप्त कर लेता है । सद्गुण सहानुभूतिपूर्ण मनुष्यों की अभ्यासगत विशेषता है। उसके कारण ही वे अपने आचरण और कर्म द्वारा सामान्य सुख की वृद्धि करते हैं । मिल का परमार्थ स्वार्थ का ही एक रूप है । विचारों के साहचर्य से उत्पन्न हुई परमार्थ की भावना अमौलिक भावना है। मिल अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन सुखवाद (परिशेष) | १५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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