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________________ कुछ विचारकों के अनुसार नीतिशास्त्र और ईश्वरविद्या में प्रमुख अन्तर यह है कि नीतिशास्त्र उस परमशुभ की खोज करता है जो व्यक्ति के लिए वांछनीय है अर्थात् नीतिशास्त्र व्यक्ति के लिए वांछनीय शुभ एवं प्रात्मकल्याण को महत्त्व देता है और ईश्वरविद्या सामूहिक सार्वभौम शुभ को; अथवा एक के सम्मुख व्यक्ति का कल्याण है और दूसरे के सम्मुख समष्टि का। उनके अनुसार नीतिशास्त्र के लिए समाज नगण्य है और ईश्वरविद्या के लिए व्यक्ति । किन्तु व्यक्ति और समष्टि में भेद देखना मूर्खता है। दोनों परस्पर सजीव रूप से सम्बद्ध हैं । इनका सम्बन्ध सांगोपांग है। वैयक्तिक कल्याण सार्वभौम कल्याण की अपेक्षा रखता है और सार्वभौम वैयक्तिक कल्याण की। दोनों के ही ध्येय को सर्वकल्याणकारी कह सकते हैं। नैतिकता व्यक्ति और समष्टि के द्वारा इस मार्ग को ग्रहण करती है और ईश्वरविद्या सृष्टितत्त्व और सृष्टिकर्ता के बोध द्वारा। जहाँ तक दोनों के प्राचार-सम्बन्धी नियमों का प्रश्न है, दोनों समान हैं । नीतिशास्त्र और ईश्वरविद्या दोनों ही मानते हैं कि मनुष्य जैव और भौतिक आवश्यकताओं के हाथ का खिलौना मात्र नहीं है । उसके जीवन का ध्येय महान है । उसका वर्तमान जीवन वांछनीय शुभ के लिए साधन मात्र है। वह अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है । उसके कर्म स्वेच्छाकृत हैं । उसका संकल्प स्वतन्त्र है । यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि दोनों स्वतन्त्रता का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में करते हैं। नीतिशास्त्र के अनुसार मनुष्य को अपने कर्मों को विवेक द्वारा परिचालित करना चाहिए। उसे उन्हीं कर्मों को करना चाहिए जो उचित हों। उसे अपनी आत्मा के आदेश को मानना चाहिए । नैतिक नियम आत्म-आरोपित हैं। किन्तु ईश्वरविद्या के अनुसार मनुष्य की स्वतन्त्रता इस तथ्य पर निर्भर है कि वह भगवइच्छा को समझ सकता है, उसके अनुरूप कर्म कर सकता है। ईश्वरीय आदेश का पालन कर सकता है; भगवत्कृपा द्वारा परम आदेश एवं ईश्वरीय आदेश को समझ सकता है। नीतिशास्त्र के अनुसार अनैतिक कर्म करने से पश्चात्ताप होता है। व्यक्ति की सत्यात्मा उसे प्रताड़ित करती है । आत्मसन्तोष के लिए उसे नैतिक आदेश का अनिवार्य रूप से पालन करना पड़ता है। किन्तु ईश्वर विद्या के अनुसार न्यायशील ईश्वर द्वारा दण्डित होने के भय से अथवा नरक के भय एवं स्वर्ग की लालसा से ही व्यक्ति सदाचार करता है। वह अपने कर्ता को प्रसन्न करने के लिए अथवा उसका साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए देवी नियमों का पालन करता है। नैतिक आदेश प्रान्तरिक आदेश है। नीतिशास्त्र और अन्य विज्ञान | ५५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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