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________________ दैवी प्रदेश बाह्य प्रदेश है । फिर भी यह वास्तविक सत्य है कि जनसाधारण ईश्वरविद्या एवं धर्म से ही अधिक प्रभावित होता है । वह भयवश नियमों का पालन करता है । नीतिशास्त्र ऐसे कर्मों को अनैतिक कहता है । वैसे, दोनों ही स्वार्थ से परे परमार्थ की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं; मनुष्य को सद्गुणी बनने के लिए प्रेरित करते हैं; उसे उसके कर्तव्यों के बारे में सचेत करते हैं । यह अवश्य है कि नीतिशास्त्र में नैतिक कर्तव्यों की रूप-रेखा बुद्धि द्वारा निर्धारित की जाती है और ईश्वरविद्या में कर्तव्य का निर्णय ईश्वर की धारणा के अनुरूप किया जाता है । ईश्वर विद्या नीतिशास्त्र को यह बताती है कि नैतिक आदर्श मानव-मन की कल्पना मात्र नहीं है । वह मनुष्य की अन्तरात्मा या परमात्मा का व्यक्त रूप है और नीतिशास्त्र ईश्वरविद्या को विवेकसम्मत करके उसके नियमों को वस्तुगत तथा सार्वभौम स्वरूप देकर देवी प्रदेश के प्रान्तरिक पक्ष पर प्रकाश डालता है । यह आदेश बाह्य प्रदेश नहीं, मनुष्य की अन्तरात्मा का आदेश है । ईश्वरविद्या नीतिशास्त्र को पुष्ट आधार देती है । भगवान् मानव- पूर्णता का प्रतीक है । नैतिक आदर्श का मूर्तिमान स्वरूप ही भगवान् है । नैतिक आदर्श निर्जीव आदर्श या कोरा स्वप्न नहीं है । ईश्वरविद्या से संयुक्त होकर वह उस व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेता है जो पूर्ण कल्याणमय, आकर्षक तथा आह्लादमय है । आत्मा के अमरत्व को स्थापित करके वह आत्म-त्याग का सन्देश देता है और स्थूल जड़वाद तथा श्रात्म घातक सुखवाद से मन को मुक्त करता है । नैतिक मान्यताओं का चरम उत्कर्ष भगवान् है । वह नैतिकता का मापदण्ड है, उसका प्रेरणा-स्रोत है । किन्तु इसके अर्थ यह कदापि नहीं हैं कि नीतिशास्त्र अपने औचित्य - अनौचित्य के निर्णय के लिए जनसाधारण के धर्म अथवा विशिष्ट सम्प्रदाय के धर्म पर आश्रित है । मध्ययुगीन यूरोप की ईश्वरविद्या ने अनैतिक होने के कारण व्यक्तियों को त्रासित कर दिया । समृद्धि और स्वर्ण की महदाकांक्षा बेची जाने लगी । विवेक से शून्य ईश्वर विद्या लुटेरों का धर्म बन गयी । भारत में भी नीति-रहित ईश्वरविद्या को अपनाने के कारण पण्डों, पण्डितों और पुजारियों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने की लालसा से मानवजीवन में भयंकर वैषम्य ला दिया है । नीतिशास्त्र और ईश्वरविद्या प्रादर्शवादी होने के कारण परस्पर अवलम्बित हैं । दोनों ही मानवीय चरमोत्कर्ष को प्राप्त करना चाहते हैं । आत्म- त्याग द्वारा अद्वितीय आनन्द का अनुभव करना चाहते हैं । नीतिशास्त्र अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए विवेक का आश्रय लेता है और ५६ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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