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सह-अस्तित्व है।
नीतिशास्त्र संकल्प को स्वतन्त्र मानकर कर्मों को प्रात्म-निर्णीत तथा नियतिवाद और अनियतिवाद को एकांगी सिद्धान्त मानता है। नियतिवाद अथवा अनियतिवाद को स्वीकार कर लेने पर नैतिक उत्तरदायित्व पर घोर आघात पहुंचता है। मनुष्य अपने कर्मों के लिए दोषी नहीं रह जाता है । उसके कर्मों पर नैतिक निर्णय देना व्यर्थ हो जाता है। नीतिशास्त्र यह मानता है कि व्यक्ति अपने प्रात्म-निर्णीत कर्मों के लिए उत्तरदायी है। यदि वह ऐसे कर्म करता है जो अशुभ हैं अथवा जिनका परिणाम बुरा है तो नैतिकता उससे प्रश्न कर सकती है कि तुमने ऐसा क्यों किया? विवेकशील और स्वतन्त्र प्राणी होने पर भी शुभ ध्येय के अनुरूप कर्म क्यों नहीं किया ? अपने को पूर्वग्रहों से मुक्त करके तथा क्षणिक आवेगों पर नियन्त्रण रखकर तुमने न्याय के मार्ग को क्यों नहीं अपनाया? उस ध्येय को क्यों नहीं अपनाया जो वास्तव में शुभ है ? नैतिक दृष्टि से ऐसा प्राणी अपने ही सम्मुख दोषी है, उसे अपनी ही प्रात्मा को उत्तर देना पड़ेगा और यदि वह अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता है तो उसका कर्म निन्दनीय और दण्डनीय है।
नैतिकता को तीन मूलभूत प्रावश्यक मान्यताएँ काण्ट मानते हैं कि बुद्धि की धारणाओं के कारण नैतिकता के स्वतः सिद्ध आधार को समझने में मनुष्य असमर्थ हैं। अतः श्रद्धा का पथ प्रशस्त करने के लिए उन्होंने ज्ञान की सीमाएं निर्धारित की। वे लिखते हैं, "श्रद्धा के लिए स्थान बनाने के लिए हमें ज्ञान का परिसीमन करना होगा।" ।
उन्होंने नैतिकता की तीन मूलभूत आवश्यक मान्यताओं को माना हैईश्वर का अस्तित्व, आत्मा की अमरता, और संकल्प की स्वतन्त्रता। इन मान्यताओं का ज्ञान हमें नैतिक बोध द्वारा प्राप्त होता है । इनके बिना नैतिक जीवन सम्भव भी नहीं है। ये नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठता का सबल हैं।
संकल्प की स्वतन्त्रता-संकल्प की स्वतन्त्रता के बिना न तो नैतिक कर्म सम्भव है और न कर्म का नैतिक मूल्यांकन ही सम्भव है। नैतिकता का उचित मूल्यांकन करने के लिए संकल्प स्वातन्त्र्य आवश्यक है, अन्यथा 'करना चाहिए' का कोई अर्थ नहीं है। काण्ट के शब्दों में, 'चाहिए' अपने अन्दर कर सकना का समावेश करता है। इसीलिए आचरण, स्वेच्छित कर्म या आत्मनिर्णीत कर्म ही नैतिक निर्णय का विषय है । उन्हीं कर्मों को हम शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित
नैतिक प्रत्यय |
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