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________________ प्रदान करती है। मल्य केवल मनुष्य को यह नहीं बताता कि उसे क्या करना चाहिए वरन् उसके आचरण को शासित भी करता है । मूल्य का ऐसा शक्तिमय स्वरूप हमें बतलाता है कि हमें शुभ मूल्यों को समझने का प्रयास करना चाहिए। मूल्य का सम्बन्ध व्यक्ति से है अत: व्यक्ति को विवेक को जाग्रत करके उस कर्म को अपनाना चाहिए जो कि परिस्थिति-विशेष में आत्म-पूर्णता की प्राप्ति के लिए सर्वोत्तम हो। मूल्यों का उत्तरोत्तर विकास : तुलनात्मक स्थिति-मूल्य का आत्मगत पक्ष यह भी बतलाता है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के मूल्य भिन्न होते हैं और एक ही व्यक्ति में भी वे उसकी विकास की अवस्था के अनुसार बदलते रहते हैं। अपने बोध और विवेचन की शक्ति (नीरक्षीर विवेक) के अनुरूप प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट तथ्य और विषय को मूल्य देता है। जनसामान्य के जीवन का अध्ययन बतलाता है कि कोई भी मूल्य ऐसा नहीं है जिसके बारे में हम यह कह सकें कि यह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक राष्ट्र को मान्य है। प्रत्येक अपने स्वभाव, व्यक्तित्व और चेतना के विकास के स्तर के अनुरूप विषय को मूल्यवान मानता है। अथवा मानव-चेतना की विभिन्न स्थितियों का अध्ययन दैहिक आवश्यकताओं की तृप्ति को मूल्यवान् समझने की स्थिति ने आत्मपूर्णता को मूल्यवान समझने की स्थिति का अंध्ययन है । मूल्यवाद किसी भी मूल्य का पूर्ण रूप से निराकरण नहीं करता है किन्तु साथ ही उस परम मूल्य को भी समझने का प्रयास करता है जो शाश्वत और सार्वभौम है । वह निम्नतम मूल्य से लेकर उच्चतम मूल्य के स्थान को निर्धारित करने का प्रयास करता है। साध्यगत और साधनगत मूल्यों के भेद द्वारा मूल्यवादी साधनगत मूल्यों की उपेक्षा नहीं करते हैं बल्कि यह समझाते हैं कि आर्थिक, दैहिक, मनोरंजन सम्बन्धी मूल्य प्राभ्यन्तरिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। अथवा आत्मा की विभिन्न आवश्यकताओं-शारीरिक, बौद्धिक, कलात्मक आदि की उचित परिमाण में तृप्ति ही परम शुभ या निःश्रेयस् मूल्य है । प्रात्म-साक्षात्कार वह है जो विभिन्न अंशों की आवयविक समग्रता एवं एकता है । यह ज्ञान, संस्कृति, सौन्दर्य, सद्गुण आदि के पारस्परिक उचित सम्बन्ध पर निर्भर है । सर्वोच्च शुभ मूल्यों के एक-दूसरे से समुचित प्रकार से सम्बन्धित श्रेणियों को कहते हैं। अतः दैहिक मूल्य से श्रेष्ठ सामाजिक मूल्य है और सामाजिक से श्रेष्ठ आध्यात्मिक मूल्य तथा ज्ञान और सौन्दर्य से श्रेष्ठ नैतिक शुभत्व या सद्गुण हैं । मूल्यों की तुलना करके उनकी क्रमिक श्रेष्ठता के आधार पर हम २८४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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