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________________ कह सकते हैं कि प्राभ्यन्तरिक मूल्य बाह्य मूल्य से श्रेष्ठ हैं और स्थायी मूल्य अस्थायी मूल्य से । ___ मूल्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन बतलाता है कि सब मूल्य सपरिमाण (commensurable) हैं अथवा प्रत्येक शुभ एवं मूल्य को तोला जा सकता है और उसका स्थान निम्नतम से उच्चतम मूल्यों की उत्तरोत्तर विकसित होती हई श्रेणी में निर्धारित किया जा सकता है। विविध शुभों का स्थान निर्धारित करने के लिए उनकी राशि और गुण दोनों को समझना होगा। मूल्यों का गुणात्मक भेद स्पष्ट बतलाता है कि जब निम्न और उच्च मूल्यों के बीच चयन का प्रश्न उठे तो सदैव उच्च मूल्य का वरण करना चाहिए । यही कारण है कि एक प्रकार का शुभ चाहे राशि में कितना ही अधिक हो वह दूसरे प्रकार के शुभ की पूर्ति नहीं कर सकता है। अतः जब परिस्थितियों के कारण यह असम्भव हो जाता है कि हम सभी प्रकार के शुभों को अपने या दूसरों के लिए प्राप्त कर सकें तब हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि उनमें से कौन-सा सर्वश्रेष्ठ शुभ है जिसे कि प्राप्त किया जा सकता है। नैतिक ज्ञान बतलाता है कि वही कर्म उचित है जो शुभ को उत्पन्न करता है। जब विभिन्न शभों में से एक शुभ को चनने का प्रश्न उठता है तब उस शभ को चुनना उचित है जो अधिकतर शभ को उत्पन्न करता है । ऐसा कथन बतलाता है कि सब प्रकार के शुभों की तुलना की जा सकती है और हम सब प्रकार के शभों को एक ही तुला में तोल सकते हैं तथा प्रत्येक का दूसरों के सम्बन्ध में उचित मूल्य प्राँककर उनके सापेक्ष मूल्य को निर्धारित कर सकते हैं। सभी मूल्य तोले जा सकते हैं, किन्तु मल्यों का सपरिमाण होना यह नहीं बतलाता कि एक मूल्य का विशिष्ट परिमाण में होना दूसरे मूल्य के अभाव की कमी पूर्ण कर सकता है और न हम बैंथम की भाँति यही कह सकते हैं कि समान परिमाण होने पर तुच्छ खेल और कविता करने के सुख को समान रूप से शभ कह सकते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि सामान्य जीवन में सभी मूल्यों की प्राप्ति असम्भव है । अधिकतर भिन्न प्रकार के शुभों के बीच विरोध उत्पन्न हो जाता है, और तब यह आवश्यक हो जाता है कि उचित विवेक और नैतिक चेतना की सहायता से उनका मूल्यांकन करके श्रेष्ठ शुभ को चुना जाय । वैसे सत्य, सौन्दर्य, शुभ एवं सद्गुण उच्चतम शुभ के अंग हैं और प्रांगिक भाव से सम्बद्ध हैं। हमें प्रत्येक को आवयविक समग्रता के अंग के रूप में समझने तथा प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, न कि असम्बद्ध इकाई के रूप में । यदि हम उन्हें आवयविक समग्रता के रूप में प्राप्त करने में मूल्यवाद / २८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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