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________________ अधीन हैं और ये दोनों अन्तर्बोध के सर्वोच्च सिद्धान्त के अधीन हैं। यहाँ पर यदि यह प्रश्न उठायें कि विशिष्ट प्रवृत्तियों को सम्यक् स्वभाव में किस सीमा तक तप्त कर सकते हैं अथवा यदि परोपकार और आत्म-प्रेम में विरोध हो तो उस विरोध को कैसे दूर कर सकते हैं तो बटलर की ओर से हमें कोई निश्चित उत्तर नहीं मिलता। वास्तव में यहाँ पर हम अन्तर्बोध के ज्ञानात्मक रूप को स्वीकार कर लेते हैं। कर्म और चरित्र का नैतिक मूल्यांकन करने के लिए चिन्तन और तुलनात्मक दृष्टि की आवश्यकता है। कर्म और चरित्र को सम्पूर्ण के सन्दर्भ में समझना होगा और सम्पूर्ण अथवा स्वभाव के अनुरूप कर्म करना सद्गुण है और विपरीत दुर्गुण है। नैतिक बोध और अन्तर्बोध-शैफ्टसबरी के अन्तर्बोध और बटलर के अन्तबर्बोध में अन्तर है। बटलर नैतिक बाध्यता को अधिक महत्त्व देता है और उसे प्रात्म-प्रेम से श्रेष्ठ अधिकार देता है । नैतिक नियम अान्तरिक है। मनुष्य अपना नियम स्वयं है। अन्तर्बोध का अान्तरिक नियम अनिवार्य अवश्य है किन्तु वह सामान्यतः आत्म-प्रेम के अनरूप है क्योंकि दोनों के लिए ही आवश्यक है कि हम उग्र आवेगों को परोपकारी तथा अन्य प्रवृत्तियों के अधीन रखें । बटलर का ऐसा कथन यह बतलाता है कि सद्गुण, कर्तव्य और आत्मस्वार्थ में संगति है। शंस्टसबरी का कहना है कि वर्तमान जीवन में हम इस संगति को पाते हैं। सद्गुण और आत्म-स्वार्थ को इस जीवन में अनुरूप मानते हुए बटलर इस तथ्य पर महत्त्व देता है कि यह अनुरूपता एवं संगति तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक कि हम भविष्य के जीवन पर भी विश्वास न रखें। इस संगति को मानने पर भी वह अन्तर्बोध के सर्वोच्च अधिकार को नहीं भूलता और कहता है कि वर्तमान जीवन में नैतिक बाध्यता प्रात्म-स्वार्थ से ऊपर है। यही शैफ्ट्सबरी और उसमें प्रमुख भेद है । हचिसन के सिद्धान्त से भी बटलर के सिद्धान्त की भिन्नता सिद्ध की जा सकती है। हचिसन के अनुसार नैतिक बोध एक विशिष्ट शक्ति है जिसके द्वारा हम बाह्य जगत् का ज्ञान उसी भाँति प्राप्त करते हैं जिस भाँति कि हम सौन्दर्य इन्द्रियों से वस्तुओं के सौन्दर्य का ज्ञान प्राप्त करते हैं । बटलर अन्तर्बोध की 'शक्ति' के नाम से अवश्य सम्बोधित करता है किन्तु वास्तव में इससे उसका अभिप्राय उस मनुष्य से है जो कि नैतिक कर्ता माना जाता है। यह मनुष्य की वास्तविक प्रात्मा है और यहाँ पर वह अरस्तू के समीप आ जाता है। अन्तर्बोध वास्तविक आत्मा एवं बुद्धि है। सहजज्ञानवाद(परिशेष) | २५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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