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________________ करना होता है । वास्तव में वह प्रवृत्तियों को सन्तुलित करके उन्हें अपने अनुकूल बनाता है । अन्तर्बोध - अन्तर्बोध आत्म-प्रेम और परोपकार से श्रेष्ठ है । मानव-विधान अन्तर्बोध का विशिष्ट स्थान होने के कारण इसका सिद्धान्त परम सिद्धान्त है । कर्म और चरित्र का समर्थन और समर्थन करनेवाला यह सिद्धान्त सामान्य राग और प्रवृत्तियों की भाँति केवल हमें प्रभावित ही नहीं करता बल्कि वह स्वभावतः उनसे श्रेष्ठ भी है । यदि उसमें अपने औचित्य के अनुरूप क्षमता भी होती और अधिकार के साथ ही शक्ति भी होती तो आज समस्त विश्व उससे अनुशासित होता । अन्तर्बोध या चिन्तन का सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति में है । वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के प्रान्तरिक सिद्धान्तों तथा उसके बाह्य कर्मों के भेदों को समझता है और अपने आप पर तथा उन पर निर्णय देता है । इस प्रकार अन्तर्बोध कर्मों के शुभ और अशुभ को निर्धारित करता है तथा कर्ता के बिना पूछे ही उसके कर्मों के औचित्य - अनौचित्य पर राजकीय गरिमा के साथ अपना निर्णय देता है । अन्तर्बोध स्वभावतः श्रेष्ठ है; यह श्रेष्ठता शक्ति की नहीं किन्तु प्रादेश की है। उसके प्रदेशानुसार कर्म अत्यन्त उच्च और श्रेष्ठ अर्थ में स्वाभाविक है । अतः अन्तर्बोध हमें औचित्य का नियम देता है और प्रत्यक्ष रूप से हमें उस नियम को पालन करने के लिए बाधित करता है । अन्तर्बोध और स्वाभाविक - 'स्वाभाविक' शब्द के विभिन्न अर्थों का परीक्षण कर बटलर इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि मनुष्य के स्वभाव से अभिप्राय उसके अन्तर के उस सिद्धान्त से है जिसका आदेश सर्वोच्च है, यद्यपि यह प्रदेश सदैव प्रभावशील नहीं होता । यही अन्तर्बोध का सिद्धान्त है । अन्तर्बोध का सिद्धान्त ताता है कि कर्म के प्रौचित्य - अनौचित्य को प्राँकने के लिए उसे सम्पूर्ण विधान की दृष्टि से समझना होगा । विधान के स्वभाव के अनुरूप कर्म शुभ और स्वाभाविक है और उसके विपरीत प्रशुभ और अस्वाभाविक । कर्म के औचित्य - चित्य को वैयक्तिक रुचि या अरुचि के सन्दर्भ में नहीं समझना चाहिए । सबसे श्रेष्ठ कर्म है जो स्वभाव या सम्यक् स्वभाव के अनुरूप है । सम्यक् स्वभाव अथवा आदर्श विधान के रूप से कर्म की श्रेष्ठता को कैसे निर्धारित कर सकते हैं ? जिस भाँति घड़ी का मूल्यांकन करने के लिए एक पूर्ण घड़ी की कल्पना कर लेते हैं और उसी के आधार पर घड़ी को अच्छी या बुरी कहते हैं, उसी भाँति सम्यक् या पूर्ण स्वभाव की कल्पना कर लेते हैं । वैसे सम्यक् स्वभाव वह है जिसमें विशिष्ट प्रवृत्तियाँ, दूरदर्शिता और परोपकार की सामान्य प्रवृत्तियों के २५८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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