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विधान का कोई भी तत्त्व एवं प्रेरणा अपने-आपमें बुरी नहीं है । किन्तु जब कोई प्रेरणा अपनी सीमाओं का उल्लंघन करने लगती है एवं अपने क्षेत्र के बाहर कर्म करने लगती है तो वह बुरी हो जाती है । उदाहरणार्थ, वह उसी भाँति बुरी है जिस भाँति कि वह राज्य जो दूसरे राज्य के व्यापारों पर बलपूर्वक अधिकार कर लेता है ।
विधान की धारणा बतलाती है कि विशिष्ट आवेग, राग और प्रवृत्तियाँ सहज रूप से एक ओर तो आत्मप्रेम के अधीन हैं और दूसरी ओर परोपकार के । परोपकार को महत्त्व देते हुए बटलर कहता है कि यह हमारे लिए स्वाभाविक और नैसर्गिक है कि हम दूसरों के शुभ के अनुरूप अपनी प्रवृत्तियों को निर्देशित और नियन्त्रित करें | आत्म- प्रेम के लिए वह कहता है कि यह कर्म का सुचिन्तित और नियामक सिद्धान्त है जो आत्मा के स्थायी आनन्द की खोज करता है । श्रात्मा के सुख की खोज करने पर भी वह उन विशिष्ट प्रवृत्तियों गौर रागों की भाँति नहीं है जो विशिष्ट विषयों की खोज - भूख, दर्द से छुटकारा प्रादि- में लीन रहते हैं, बल्कि वह उस सामान्य सुख की खोज करता है जो सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त है | वह विशिष्ट प्रवृत्तियों से श्रेष्ठ है । सक्रिय प्रवृत्तियों का प्रयोग वह अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए करता है । अतः यहाँ पर उसे हम समन्वयात्मक और सामंजस्यात्मक सिद्धान्त के रूप में देखते हैं जो कि बौद्धिक है और इस कारण अन्य सक्रिय प्रवृत्तियों से श्रेष्ठ अधिकार रखता है । बटलर यह भी मानता है कि यदि आत्म-प्रेम बौद्धिक है तो वह अपने ही ध्येय का विरोध करता है । उदाहरणार्थ, जबकि वह विशिष्ट आवेगों को उस सामान्य संगति को भंग करने देता है जो स्थायी प्रानन्द के लिए अनिवार्य है ।
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अन्तर्बोध तथा अन्य प्रवृत्तियाँ - परोपकार और आत्म- प्रेम से श्रेष्ठ चिन्तन का सिद्धान्त या अन्तर्बोध है । यही औचित्य का नियम है। आत्म-प्रेम की भाँति यह भी कर्म का सुविन्तित और नियामक सिद्धान्त है, पर साथ ही यह वह शक्ति है जिसका प्रभुत्व परम है । यह अपना अधिकार बौद्धिक आत्म- प्रेम को प्रदान करता है और विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों का भी उपभोग करता है । अन्तर्बोध अन्य प्रवृत्तियों पर परम अधिकार रखता है, किन्तु साथ ही यह उन पर निर्भर भी है क्योंकि मनुष्य में बुद्धि या अन्तर्बोध अपने-आपमें सद्गुण उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त प्रेरक नहीं है । वह केवल निर्देशक है और अपने प्रदेश के अनुपात में शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता है । इस कारण उसे प्रवृत्तियों के साथ मैत्री करनी पड़ती है और उनकी वृद्धि को एक उचित मात्रा तक प्रोत्साहित
सहजज्ञानवाद ( परिशेष ) / २५७
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