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________________ का मानना और आवश्यक है । सुख में गुणात्मक भेद भी होता है । यहाँ पर मिल का सिद्धान्त बैंथम के सिद्धान्त की तुलना में अधिक श्रेष्ठ हो जाता है । किन्तु इस श्रेष्ठता को वह तभी प्राप्त कर पाता है जब वह सुखवाद को छोड़ देता है। मनुष्य निम्न प्राणियों एवं पशुओं की भांति इन्द्रिय-सख का इच्छक नहीं, है। वह उच्च एवं श्रेष्ठ सख चाहता है। श्रेष्ठ सुख के लिए दुःख को स्वीकार करता है। किन्तु प्रश्न यह है कि श्रेष्ठ सख को कैसे निर्धारित किया जाय ? उसका क्या मापदण्ड है ? संख की श्रेष्ठता को समझाने के लिए मिल 'योग्य न्यायाधीशों के निर्णय' तथा 'गौरव की भावना' का उदाहरण देता है। सुखवाद के मूल सिद्धान्त के अनुसार सुख की वांछनीयता उसके परिमाण और तीव्रता पर निर्भर है। किन्तु मिल 'योग्य न्यायाधीशों के निर्णय' को परम निर्णयं अथवा परम मापदण्ड मानता है। उनके निर्णयों के विरुद्ध कुछ कहना सम्भव नहीं है। उन निर्णयों के अनुसार सुख का मूल्य उसकी उत्पादक वस्तु पर निर्भर है। अपने कारण की श्रेष्ठता या निम्नता के अनुरूप ही सुख वांछनीय या अवांछनीय है। 'योग्य न्यायाधीशों' से प्लेटो की भांति मिल का अभिप्राय उन व्यापक अनुभववाले व्यक्तियों से है जो अपनी आत्म-निरीक्षण की तीक्ष्ण शक्ति द्वारा सुखो का तुलनात्मक रूप से मूल्यांकन करते हैं। ऐसा व्यापक एवं सर्वांगीण अनुभववाला व्यक्ति दार्शनिक चिन्तन और साधारणतम कर्म (ताश खेलना आदि) दोनों से प्राप्त सुख का अनुभव कर चुका है । इसके विपरीत उस मनुष्य का अनुभव, जिसने केवल ताश खेलने के सुख को प्राप्त किया है, सीमित है। व्यापक अनुभव से रहित होने के कारण उसका ज्ञान संकीर्ण और एकांगी है। वह दार्शनिक सुख एवं उच्च सुख का अनुभव नहीं कर पाता। अतः जब दोनों प्रकार के सुखों का अनुभव करनेवाला मनुष्य दार्शनिक सुख को चुनता है तब दार्शनिक सुख को ही मान्य मानना चाहिए। मिल ऐसे अनुभवी व्यक्तियों को ही सुख का मूल्य और उसकी वांछनीयता को निर्धारित करने का अधिकार देता है। वह कहता है कि यदि ऐसे योग्य व्यक्तियों की निर्णायक समिति से पूछा जाये तो वह अवश्य ही एकमत होकर श्रेष्ठ सुख को महत्त्व देगी; उस सुख को जो कि उच्च भावनाओं और प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट कर सकता है। मिल का विचार है कि कोई भी विद्वान, अनुभवी तथा प्रात्म-प्रबुद्ध व्यक्ति अपने जीवन को दुःखपूर्ण मानते हुए भी किसी मूर्ख व्यक्ति अथवा पशु के सुखी जीवन से अपने जीवन को बदलना न चाहेगा। यदि मिल के कथन को सत्य मान लें तो उसके सुखवाद का मापदण्ड सुख नहीं बल्कि निर्णायक समिति है । इसी प्रकार मनुष्य १५६ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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