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________________ थीं उन्हें दूर कर उसने प्रचलित प्रथाओं और नियमों को उपयोगितावादी साँचे में ढालना चाहा । वह कहता है कि उपयोगितावाद का मापदण्ड जनता का सुख है—अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख का समुच्चय--न कि कर्ता का अधिकतम सुख है । उपयोगितावादी व्यक्ति सामाजिक दृष्टिकोण को सम्मुख रखकर ही अपने तथा दूसरों के सुखों का मूल्यांकन करता है। अपने तथा अन्य के सुख के वितरण के बीच वह तटस्थ दर्शक की भाँति है। उसके निर्णय निष्पक्ष होते हैं । “नजारथ के ईसू के स्वर्ण-सिद्धान्त में हमें उपयोगितावादी नैतिकता की पूर्ण आत्मा मिलती है। जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, दूसरों के लिए भी वैसा ही करना और अपने पड़ोसियों के प्रति अपनी ही तरह प्रेम रखना, यह उपयोगितावादी सदाचार के आदर्श की पूर्णता है।" उपयोगितावादी प्रात्मत्याग, वैराग्य तथा सत्यशीलता को शुभ मानता है, क्योंकि इनसे सर्वसामान्य के सुख की वृद्धि होती है। मिल ने वास्तव में यहाँ पर स्टोइक और ऍपिक्यूरियन विचारों का मिश्रण कर दिया है। एक ओर वह सुख को महत्त्व देता है और दूसरी ओर आत्मसंयम एवं सुख के प्रति उदासीनता को। स्टोइकों के प्रभाव के वश अथवा उपयोगितावाद को श्रेष्ठ सिद्धान्त सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा के वश वह यहाँ तक कह देता है कि मनुष्य प्राय: अपने सुख के पूर्ण त्याग द्वारा ही दूसरों के सुख में सहायक होता है और उसकी यह भावना (आत्मचेतना) कि वह बिना सुख के रह सकता है उसे उस सुख की प्राप्ति कराती है जिसे पाना उसके लिए सम्भव है। ___ सुख की क्रमिक व्यवस्था : गुणात्मक भेद-बैंथम का कहना था कि 'सुख को चुनते समय परिमाण को तौल लेना चाहिए और सुख का समान परिमाण होने पर तुच्छ खेल और कविता समान रूप से शुभ हैं ।' बैंथम के विरुद्ध पालो-- चकों ने यह कहा कि उपयोगितावाद को मान्य सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह स्थूल इन्द्रियवाद को जन्म देता है। इस कटु आलोचना से मिल उपयोगितावाद को मुक्त करने का प्रयास करता है। वह कहता है कि सुख की वांछनीयता परिमाण और गुण (quantity and quality) दोनों पर निर्भर है । सुखों में जातिगत या गुणात्मक भेद है। संस्कृत और श्रेष्ठ सुख अधिक वांछनीय है और यह उपयोगितावाद के सिद्धान्त के अनुरूप है कि हम कुछ प्रकार के सुखों को अधिक वांछनीय या मूल्यवान मान लें । बैंथम के अनुसार काव्य द्वारा प्राप्त सुख और निकृष्ट खेल द्वारा प्राप्त सुख परिमाण में समान होने पर समान रूप से वांछनीय हैं । मिल कहता है कि सुख को मापने के लिए एक आयाम सुखवादः(परिशेष) | १५५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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