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________________ अपने मूल में शुभ होते हुए भी वह आभ्यन्तरिक रूप से अशुभ है, बौद्धिक दष्टि से खोखली और व्यावहारिक दष्टि से भ्रमपूर्ण है। उसके नियमों में देशकाल की विभिन्नता एवं विचित्रता नहीं मिलती, अत्यन्त कट्टर हो जाने के कारण वह स्थिर नियमों का समर्थन करती है, जिनका पालन करने से आत्मप्रबुद्ध व्यक्ति को सन्तोष नहीं मिल सकता क्योंकि वह अविवेकी एवं नैतिक ज्ञान-शून्य व्यक्ति की भांति नियमानुवर्तिता को ही सब-कुछ नहीं समझ सकता। वह आन्तरिक नियम को भी जानना चाहता है। वह उस नियम को समझना चाहता है जिसके अनुरूप कर्म करने के लिए वह बाध्य है। नैतिक माप-दण्ड क्या है ? नैतिक निर्णय का मूल आधार क्या है ? किस माप-दण्ड के आधार पर कर्म को उचित और अनुचित कहा जा सकता है ? क्या नैतिकता उस माप-दण्ड को दे सकती है जो नियम, रीति-रिवाज एवं अभ्यास का स्थान ले सके या जो समाज, जाति देश के ऊपर एक सार्वभौम वस्तुगत सत्य की पूर्ति कर सके ? वह कौन-सा अनुभव है जिसे हम अपने नैतिक आचरण द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं ? मनुष्य के विवेक ने जानना चाहा कि कौन-सा आदेश सर्वोच्च आदेश है । जीवन में जो अनन्त आदेश दीखते हैं उनमें कौन-सा आदेश वरेण्य है ? आचरण में किस माप-दण्ड की शरण ली जाये कि आदेशों और नियमों के जगत् में जो विरोध मिलता है वह दूर हो जाये ? क्या प्रचलित नैतिकता को सही अर्थ में नैतिक कह सकते हैं ? क्या उसके नियमों का पालन करना शुभ है ? क्या वे ध्येय के लिए उपयोगी हैं ? क्या उनमें आत्म-संगति मिलती है ? और यदि नहीं मिलती तो इसका क्या कारण है ? संक्षेप में, अनेक प्रकार के प्रश्नों को उठाकर मनुष्य ने नैतिक मान्यताओं की प्रामाणिकता को जानना चाहा । व्यावहारिक कठिनाइयों ने उसे विवश किया कि वह नैतिकता के परम-स्वरूप को समझे। उसने तर्क बुद्धि से काम लिया और व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया। मनन और चिन्तन उसे नैतिक प्रगति की ओर ले गये। दण्ड और पुरस्कार का युग अनायास ही पीछे छुट गया। बाह्य नियमों का भय जाता रहा। मनुष्य सदाचार की ओर झुक गया । प्रचलित नैतिकता का अनैतिक व्यक्तियों के लिए जो कुछ भी महत्त्व रहा हो, नैतिक दृष्टि से वह केवल ऐतिहासिक जिज्ञासा का समाधान करती है। उनके अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार दण्ड-पुरस्कार के सामाजिक नियम से व्यक्ति प्रात्मोन्मुखी हुमा और किस प्रकार नैतिकता के विकास के द्वितीय चरण ने विचार प्रधान प्रणालियों (reflective systems) ११० / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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