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मिलता है तो उसकी आत्मा नियमों की विरोधी हो जाती है। वह उनके बन्धनों से अपने को मुक्त कर यह जानने का प्रयास करता है कि उसका ध्येय क्या है । जब धर्म या नीति उससे कहती है कि अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो तो वह जानना चाहता है कि उसका अपने प्रति क्या कर्तव्य है। क्या पड़ोसी और उसके अधिकार समान हैं ? यदि समान हैं तो वह परस्पर के स्वार्थों के संघर्ष के कारण विरोधी परिस्थिति उत्पन्न होने पर क्या करे ? यह एक नैतिक चिन्तन की स्थिति है। बाह्य नियम के बन्धन और चेतना की प्रान्तरिक स्वतन्त्रता के विरोध का प्रश्न है। उसकी नैतिक चेतना बाह्य आरोपित नियमों के विपरीत आत्म-आरोपित नियम के स्वायत्व को स्थापित करती है । वह विवेकसम्मत और उचित नियमों को चाहती है। दण्ड का भय और पुरस्कार का लालच उसे अपने मार्ग से विचलित नहीं करता है। इस प्रकार व्यक्ति ज्यों-ज्यों नैतिक प्रौढ़ता की ओर बढ़ता गया त्यों-त्यों वह अपने को बाह्य नियमों से मुक्त करता गया।
आन्तरिक नियम एवं प्रान्तरिक विधान का बोध-प्रचलित नैतिकता ने अपनी दुर्बलताओं के कारण अपने विरोधी बीज बोये । रीति-रिवाजों के संकुचित दायरे में नैतिकता पनप नहीं सकी। उसकी घुटन एवं धनात्मक नियमों की कट्टरता ने लोगों की आलोचनात्मक बुद्धि को जाग्रत कर दिया। जीवन की विषम परिस्थितियों ने विवेक को सक्रिय बनाया। व्यावहारिक कठिनाइयों ने प्रचलित मान्यताओं के प्रति सन्देह और अविश्वास को जन्म दिया। लोकमत और शास्त्रमत के प्रति मनुष्य ने विद्रोह किया। उसने यह आवश्यक समझा कि वह इनको स्वीकार करने के पहले उनके सत्य को समझे और जब उसने उन्हें आलोचनात्मक कसौटी पर कसकर तर्क-बुद्धि से ग्रहण करना चाहा तो उसे रूढ़ियों और पूर्वग्रहों के खोखलेपन का तथा धर्म के बाह्याडम्बर और प्रचलित आदेशों की व्यर्थता का बोध हुआ। उसने उन सबसे अपने को मुक्त करने का प्रयास किया और उसका ध्यान आन्तरिक नियमों की ओर खिचा । इस प्रकार सर्वत्र ही नैतिकता का विकास बाह्य नियमों से आन्तरिक नियमों की ओर होने लगा। ___ नियमों की सत्यता को समझने के प्रयास में मनुष्य को यह ज्ञात हुआ कि प्रचलित नैतिकता विवेकसम्मत नहीं है। वह सच्चरित्रता को महत्त्व नहीं देती है, उद्देश्य, प्रेरणा एवं चरित्र का उचित मूल्यांकन नहीं करती है; वह जीवन के बाह्य पक्ष को ही सब-कुछ मानती है, आन्तरिक पक्ष की ओर से विमुख है।
. नियम (विधान के रूप में नैतिक मानदण्ड) | १०६
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