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________________ देती है। जसा कि प्रारम्भ में कह चुके हैं, सहजज्ञानवाद के अनुसार कुछ वस्तुएँ अपने-आप में शुभ हैं और कुछ अशुभ । व्यक्ति के चाहने पर न तो उनका मूल्य बढ़ता है और न, न चाहने पर, घटता ही है। वस्तुओं के प्राभ्यन्तरिक गुण का ज्ञान व्यक्ति को अन्तर्बोध द्वारा मिलता है। सहजज्ञानवाद यह भी मानता है कि अन्तर्बोध एवं नैतिक निर्णय की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में सदैव वर्तमान रहती है। अत: वह समस्त सरल-जटिल परिस्थितियों में यह बतला सकती है कि व्यक्ति को क्या करना चाहिए। वह सदैव व्यक्ति के कर्म के स्वरूप को निर्धारित कर सकती है और तत्काल आदेश दे सकती है कि यह करो और यह न करो। उसके आदेश तात्कालिक होने के साथ ही अद्वितीय भी हैं; तर्क अथवा युक्ति द्वारा उसके निर्णयों को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। उसके निर्णय परम हैं; जो उचित है वह सदैव ही उचित रहेगा और जो अनुचित है वह सदैव अनुचित रहेगा। उसके निर्णय निरपेक्ष हैं; उन्हें किसी अन्य निर्णय के आधार पर अथवा किसी अन्य वस्तु के सम्बन्ध में सिद्ध नहीं कर सकते। उसके आदेश अपनी विशिष्टता रखते हैं; सत्यता, पराक्रम तथा आत्म-संयम का वह बिना कोई कारण दिये हुए अनुमोदन करता है। संक्षेप में अन्तर्बोध के निर्णय प्रत्यक्ष, अद्वितीय, निरपेक्ष, अविश्लेषणीय और सहज होते हैं। अन्तर्बोध को एक सर्वसामान्य शक्ति के रूप में मानने के साथ ही सहजज्ञानवादी यह मानते हैं कि वह सब व्यक्तियों में समान रूप से विकसित नहीं है। सुशिक्षित, चरित्रवान् तथा बौद्धिक रूप से विकसित व्यक्ति के निर्णय कम शिक्षित तथा विवेकहीन व्यक्तित्व के निर्णय से अधिक मान्य और विश्वसनीय होते हैं । इस भेद को स्वीकार करने के साथ ही वे यह मानते हैं कि दोनों के ही निर्णय परम और निरपेक्ष हैं। अन्तर्बोध के निर्णयों के उक्त स्वरूपों का यह अर्थ नहीं है कि वे बोधगम्य नहीं हैं। अंकगणित के स्वयंसिद्ध मूल सूत्रों की तरह अन्तर्बोध के निर्णयों का ज्ञान बुद्धिग्राह्य और सहज है। साथ ही यह सच है कि उन निर्णयों को शब्दों अथवा तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता एवं बौद्धिक प्रमाण नहीं दिया जा सकता और न सामान्य बोध की दुहाई देकर ही सिद्ध किया जा सकता है। उसके विरुद्ध किसी प्रकार का भी कथन सम्भव नहीं है। - कुछ सहजज्ञानवादी अन्तर्बोध को एक प्रकार की छठी इन्द्रिय मानते हैं। जिस भाँति हम नेत्रेन्द्रिय से यह स्पष्ट और प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि किसी वस्तु २४४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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