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________________ का रंग क्या है, उदाहरणार्थ, आँख बतला सकती है कि दृश्य वस्तु लाल है अथवा पीली, उसी भांति इस छठी इन्द्रिय से नैतिक मान्यताओं का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हो सकता है। वह कर्मों के सदसत् का ज्ञान देती है। पुनः जिस भाँति नेन्द्रिय जन्मजात एवं सहजात और सार्वभौमिक है उसी प्रकार नैतिक इन्द्रिय भी जन्मजात और सार्वभौमिक है। वह स्वतःजात और नैसर्गिक है। अन्तर्बोध सार्वभौमिक एवं सार्वजनीन है । वह सब व्यक्तियों में है। अन्तर्बोध को सार्वभौमिक कहने के साथ ही सहजज्ञानवादियों ने कुछ अपवाद स्वीकार किये हैं। उनका कहना है कि ये अपवाद अन्तर्बोध की सार्वभौमिकता का निराकरण नहीं कर सकते हैं । समान रूप से नेत्रेन्द्रिय होने पर भी कुछ लोग रंग-अन्ध होते हैं। उसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का अन्तर्बोध भ्रान्तिपूर्ण होता है। रंगान्धता यह सिद्ध नहीं करती है कि जनसामान्य को नेत्रों द्वारा रंग की पहचान नहीं हो सकती और कुछ लोगों का भ्रान्तिपूर्ण अन्तर्बोध यह सिद्ध नहीं करता कि लोगों में सहजज्ञान की शक्ति नहीं है । ऐसी स्थिति में अन्तर्बोध को शिक्षित और माजित किया जा सकता है। अन्तर्बोध सदसत् को पहचानने की वह शक्ति है जो तत्काल बतला देती है कि वांछनीय और उचित क्या है, अपने-आप में शुभ क्या है ? जिस भाँति घ्राणेन्द्रिय के लिए यह नहीं कह सकते कि जिस गन्ध को वह बुरा कहती है वह गन्ध क्यों बुरी है, उसी भाँति अन्तर्बोध किसी कर्म को शुभ या वांछनीय क्यों कहता है, यह नहीं कहा जा सकता। अन्तर्बोध के पक्ष अथवा विपक्ष में कोई बौद्धिक प्रमाण नहीं दे सकते हैं । अन्तर्बोध का निर्णय सब कालों, सब देशों और सब अवस्थाओं में समान रूप से सत्य है । अतः अन्तर्बोध द्वारा व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में अपने कर्तव्य को निर्धारित कर सकता है। उसे उसी कर्तव्य और नियम को स्वीकार करना चाहिए जिसे कि अन्तर्बोध का पूर्ण समर्थन प्राप्त हो । अन्तर्बोध ही नैतिकता का मानदण्ड और प्रमाण है। सहजज्ञानवाद का सिद्धान्त कहाँ तक नैतिकता के मानदण्ड को दे सका है, कर्मों के औचित्य को निर्धारित करने के लिए कितनी सम्यक् तुला दे सका है, यह सहजज्ञानवाद के विभिन्न सिद्धातों का अध्ययन ही बतायेगा। सहजज्ञानवाद | २४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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