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________________ इच्छा करता है । व्यक्ति वस्तुओं को स्वयं चुनता है, इसलिए वे सुखद हैं । सुख । 'चुनाव' के आत्मगत पक्ष का सूचक है। किन्तु चुनाव का कुछ वस्तुगत मूल्य भी होता है। वह मूल्य वस्तु के स्वरूप पर निर्भर है, चुनाव का विषय क्या है और कौन-सी वस्तु चुनी जाती है इसे सुखवाद नहीं बता पाया । वह यह नहीं समझा पाया कि सुख का चुनाव में उचित स्थान तो है पर एकमात्र सुख ही चुनाव का लक्ष्य नहीं है। पशु धर्म-सुखवाद यह मानता है कि जीवन का परम ध्येय इन्द्रियजन्य है, बौद्धिक नहीं। सुखवादी व्यक्ति अनैतिक है। उसके आचरण का मूल्य ध्वंसात्मक है। वह सामाजिक कर्तव्य करने के बदले अपने अधिकारों की मांग करता है किन्तु वह यह बतलाने में असमर्थ है कि मनुष्यत्व की मांग क्या है ? मनुष्य के लिए सुखप्रद क्या है ? सुख को शुभ कहकर सुखवादियों ने सोचा कि उन्होंने नैतिक समस्या का समाधान कर दिया किन्तु इसके विपरीत उन्होंने नैतिकताको समूल नष्ट कर दिया, मनुष्य को पशु बना दिया। -सुखवाद का मूल्य-सुखवाद पशु प्रादर्श को ही सब-कुछ मानता है। वह मानव-गौरव की चेतना में जुगुप्सा उत्पन्न कर. मनुष्यत्व को आघात पहुंचाता है। किन्तु फिर भी यह मानना पड़ेगा कि प्रत्येक सिद्धान्त तथा चिन्तन-पद्धति में प्रांशिक सत्य अवश्य रहता है जो चिन्तन के लिए सामग्री देता है। मनुष्य में भावनाएँ और इच्छाएँ हैं। चिन्तनशील नैतिक जीवन में उनकी सन्तुष्टि आवश्यक है । उनका निराकरण नहीं किया जा सकता। सुखवाद के विरोधी सिद्धान्त वैराग्यवाद की तुलना में हम सुखवाद के मूल्य को प्रांक सकते हैं। वैराग्यवाद ने जीवन के अत्यन्त कठोर, अनाकर्षक तथा प्रभावात्मक पक्षों को.. स्वीकार किया है। सुखवाद यह बताता है कि भावनाओं तथा सहज प्रवृत्तियों के निराकरण से प्रात्म-सन्तोष नहीं मिल सकता। भावनाएं और इच्छाएं: मानव-स्वभाव का अनिवार्य अंग हैं। प्रात्म-निषेध द्वारा प्रात्म-पूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अगले अध्याय में हम बतलायेंगे कि वैराग्यवाद ने केवल बुद्धि को महत्त्व देकर नैतिकता के रूप को समझा। सुखवादियों ने भावनात्रों द्वारा उसके पदार्थ को समझाया । वास्तव में दोनों सिद्धान्त एकदूसरे के प्रभाव को दूर करते हैं । इनका समुचित समन्वय ही पूर्ण सिद्धान्त को जन्म देता है। सुखवाद | १३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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