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________________ किन्तु साथ ही स्पष्ट रूप से कहता है कि सुख अपने-आपमें मानदण्ड नहीं है। नैतिक दृष्टि से कर्मों के औचित्य-अनौचित्य का मानदण्ड शारीरिक स्वास्थ्य है । शारीरिक स्वास्थ्य एवं जाति का जीवन ही सन्निकट ध्येय है । ऐसी स्थिति में स्पेंसर के सिद्धान्त को सुखवाद कहना भ्रान्तिपूर्ण है। सन्निकट ध्येय और 'परम ध्येय के बीच स्पेंसर यह कहकर सामंजस्य स्थापित करता है कि नैतिक उद्देश्य के लिए यह मान लेना चाहिए कि अधिकतम परिमाण के जीवन का और अधिकतम परिमाण के सुख का उत्पादन करनेवाले कर्मों में सामंजस्य है । उसकी उपर्युक्त मान्यता क्या अपने को सिद्ध करती है ? उसका यह कथन, सम्भव है, इस विश्वास पर आधारित है कि आदर्श समाज (पूर्ण सामंजस्य की स्थिति) का निरपेक्ष नीतिशास्त्र उन आचरण के नियमों का प्रतिपादन करता है जो कि दुःखरहित पूर्ण सुख का उत्पादन करते हैं। ऐसे आशापूर्ण भविष्य से सम्बन्धित नियम वर्तमान स्थितियों का समाधान नहीं कर सकते, वे वास्तविक जगत् के लिए व्यावहारिक नियम नहीं दे सकते हैं । वे सुखप्रद और स्वास्थ्यप्रद कर्मों में एकत्व स्थापित नहीं कर सकते । सच तो यह है कि सुख और दुःख की मानसिक-कायिक खोज यह व्यावहारिक ज्ञान नहीं दे सकती कि किस परिस्थिति में सुख-विशेषकर उच्च सुख प्राप्त हो सकता है । यह कहना कि वस्तु कब और किसे सुख दे सकती है, यह परिस्थिति-मानसिक और भौतिक-के व्यापक ज्ञान की अपेक्षा रखती है। अनावश्यक प्राशावाद-स्पेंसर का विश्वास है कि विकास अपनी अन्तिम स्थिति में एक ऐसे आदर्श समाज को स्थापित कर देगा जहाँ कि दुःखरहित सुख होगा। उसके अनुसार जीवन-संरक्षण के लिए अनिवार्य नियम ही नैतिक नियम हैं और वे सखप्रद भी हैं। पद्धतिक्रम की स्थिति अपूर्ण सामंजस्य की स्थिति है, इसमें पूर्ण सुख प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु पूर्ण सामंजस्य अवश्य ही पूर्ण सुख देगा । इस स्थिति में निरपेक्ष नीतिशास्त्र के नियम व्यावहारिक हो जायेंगे। मनुष्य उन परम नैतिक कर्मों को करने लगेंगे जो दुःखरहित सुख का उत्पादन करेंगे। किन्तु इस तथ्य को कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? स्पेंसर का यह कहना था कि विश्व का इतिहास बतलाता है कि विकास का क्रम अनिश्चित, असंगत, एकरूपता से निश्चित, वैचित्र्यपूर्ण संगतिमय अनेकरूपता की उन्नति का क्रम है । जहाँ तक मानव-समाज का प्रश्न है ऐसे विकास की अन्तिम स्थिति दुःखरहित पूर्ण सामंजस्य की सूचक है । विकासवादियों के इस कथन के समान ही महत्त्वपूर्ण निराशावादियों का कथन भी मिलता है । वास्तविक अनुभव यह नहीं विकासवादी सुखवाद | १६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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