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________________ मान्यताओं के उद्गम और विकास को समझना चाहा । नैतिकता को वैज्ञानिक प्राधार देने के प्रयास में उन्होंने उसे जीवशास्त्र से सम्बद्ध किया । नैतिक विकास को विश्व - विकास का अंग मानकर नैतिकता को समझने के लिए विकास के पद्धति क्रम को समझना आवश्यक बतलाया । उनका सिद्धान्त वास्तव में प्रकृतिवाद है । नैतिक मान्यताओं के उचित मूल्य को समझाने के बदले वे केवल यह समझाने का प्रयास करते हैं कि नैतिक मान्यताओं की उत्पत्ति कैसे हुई और मानव जाति के जीवन की वृद्धि या ह्रास में वे कहाँ तक सहायक हुई हैं। जहाँ तक प्राकृतिक घटनाओं का प्रश्न है, वे ध्येय (आदर्श) की ओर उदासीन 'हैं। नीतिशास्त्र आदर्शों को निर्धारित करता है । यह पता लगाता है कि प्रदर्श आचरण को कैसे प्रभावित कर सकते हैं । प्राकृतिक घटनाओं का सम्बन्ध 'क्या है' ( वास्तविकता ) से है और नीतिशास्त्र का सम्बन्ध 'क्या होना चाहिए' (आदर्श) से है । नीतिशास्त्र की ऐसी वैज्ञानिक व्याख्या ऐतिहासिक जिज्ञासा की तृप्ति है, न कि नैतिक जिज्ञासा की । नैतिक जिज्ञासा का समाधान तभी सम्भव है जबकि आचरण के औचित्य और अनौचित्य पर प्रकाश डाला जाय; यह बतलाया जाय कि क्यों किसी विशेष प्रकार के आचरण को शुभ कहते हैं । अलेग्ज़ैण्डर का सिद्धान्त इस ओर थोड़ा अग्रसर हुआ है । वह कहता है कि जीवन की वह प्रणाली अच्छी है जो समाज में सन्तुलन स्थापित करती है । जीवशास्त्र से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण वह इस प्रश्न के महत्तर पहलू को छोड़ देता है । वह यह नहीं बतलाता कि यह सन्तुलन महत्त्वपूर्ण क्यों है । नैतिक आदर्श के स्वरूप को समझाने के बदले विकासवादी कहते हैं कि विकासक्रम में वे नियम रहते हैं जो जीवन के संरक्षण में सहायक हैं । ये नियम उचित क्यों हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है, श्रात्म चेतन प्राणी किस प्रादर्श को प्राप्त करना चाहता है, उसे आत्म-सन्तोष कैसे प्राप्त हो सकता है, इन सब प्रश्नों से विकासवादी उतने ही दूर हैं जितनी कि निम्न जीवयोनियाँ हैं । उन्होंने नैतिकता की ऐतिहासिक और वैज्ञानिक व्याख्या की । मनुष्य के बौद्धिक, श्राध्यात्मिक स्वभाव को भूलकर उसे जीवन का तटस्थ दर्शकमात्र मान लिया। उनके सिद्धान्त को प्राकृतिक सिद्धान्त कहना उचित होगा । नैतिकता की धारणा मूल्यपरक है, न कि वस्तुपरक । नीतिशास्त्र अनुभवात्मक और यथार्थ विज्ञान नहीं. इसका भूतकालीन घटनाओं अथवा नैतिकता के इतिहास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । इसे सुखवाद कहना भ्रान्तिपूर्ण है – स्पेंसर सुख को परम ध्येय मानता है १९४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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