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________________ चार्वाकों की ही आलोचना की है । सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत चार्वाकों ने उत्कृष्ट सुख को महत्त्व दिया है । उन्होंने राजकीय व्यवस्था, सामाजिक नियमों और दण्डनीति को स्वीकार किया है । वे सामाजिक, स्वार्थपूर्ण वासनाओं की तृप्ति में विश्वास नहीं करते हैं । सुशिक्षित चार्वाकों में कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन ने प्रसिद्धि प्राप्त की है । इन्द्रियों की तृप्ति एवं पंचेन्द्रियों की तृप्ति को सुख एवं काम के मूल में मानकर उन्होंने ब्रह्मचर्य, धर्म तथा नागरिक वृत्ति को साधन रूप में आवश्यक माना । ईश्वर के अस्तित्व और परलोक में विश्वास रखते हुए सुख को परम लक्ष्य माना । वात्स्यायन का कहना है कि आचरण के उन नियमों को स्वीकार करना चाहिए जो सुख प्राप्ति के लिए उपयोगी हैं । सुख को अन्तिम लक्ष्य मानते हुए उन्होंने शिष्ट सुख को अपनाने के लिए कहा । पाशविक सुख की आत्मघातक प्रवृत्ति से वे परिचित थे । यही कारण है कि उन्होंने तीन पुरुषार्थ माने हैं— धर्म, अर्थ और काम। जीवन में इन तीनों का यथोचित सन्तुलन आवश्यक है यद्यपि धर्म और अर्थ का महत्त्व गौण है । काम सर्वोपरि तथा प्रमुख ध्येय है और शरीर-रक्षा के लिए आवश्यक है । मनुष्य को चाहिए कि वह पशुओं की भाँति सहज रूप से कामतृप्ति को न अपनाये । उसे कामतृप्ति के साधनों, उसकी विभिन्न अवस्थाओं एवं जीवन के व्यापक और व्यवस्थित अध्ययन द्वारा उस ज्ञान को प्राप्त कर लेना चाहिए जो कि परम लक्ष्य-काम की प्राप्ति में सहायक है । स्थूल स्वार्थ सुख के बदले वात्स्यायन ने शिष्ट सुख को उचित बतलाया । उन्होंने यह समझाया कि किशोरावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन तथा वेदों का अध्ययन आवश्यक है । चौंसठ ललित कलाओं के अभ्यास द्वारा इन्द्रियों को शिक्षित, संयमित और सुसंस्कृत भी बनाना चाहिए । इस भाँति वात्स्यायन ने वर्तमान एवं तत्कालीन सुख के बदले सम्पूर्ण जीवन के सुख की ओर ध्यान आकर्षित किया । शुद्ध बुद्धिमय जीवन अथवा निःस्पृहतावाद की प्रतिक्रिया - हम घोर पारलौकिक प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के रूप में इस दर्शन को समझ सकते हैं । विचार के क्षेत्र में यह सदैव ही देखते हैं कि जब कोई विशिष्ट विचारधारा अपने प्रवेश एकांगी हो जाती है तो मानो उसे सुधारने और स्वस्थ रूप देने के लिए उतनी ही शक्तिशाली दूसरी विचारधारा जन्म ले लेती है । यूनानी दर्शन में सुखवाद और बुद्धिपरतावाद एक-दूसरे के विरोधी होने पर भी परस्पर पूरक हैं । भारतीय जीवन का अध्ययन बतलाता है कि उपनिषदों का निर्गुण ब्रह्म जनसाधारण के ३२८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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