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________________ प्रादर्श के रूप में समझा सकता है। उसे अनुभव के आधार पर नहीं समझाया जा सकता । हेनरी मूर' और क्लार्क' के सिद्धान्त में सिजविक को यह स्वतःसिद्ध वाक्य मिला कि "बौद्धिक प्राणी सार्वभौम सुख को लक्ष्य मानने के लिए बाध्य है।" किन्तु प्रश्न यह है कि सहजज्ञान के नियमों के विधान को कैसे समझा जा सकता है ? वह कैसे बोधगम्य होता है ? सर्वसामान्य की चेतना द्वारा प्राप्त अन्तर्बोध को स्वीकार करना दार्शनिक दृष्टि में उचित नहीं है। सहजज्ञान के विधान को अन्तर्बोध नहीं समझा जा सकता है। उसको समझने के लिए यह आवश्यक है कि सामान्यबोध की नैतिकता के नियम की तुलना द्वारा तथा बौद्धिक चिन्तन द्वारा संगतिपूर्ण विधान बना लिया जाय । उन नियमों को स्वीकृत कर लिया जाय जो स्पष्ट, संगतिपूर्ण और अधिकांश व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत हों। इस प्रकार सामान्यबोध की नैतिकता के निष्पक्ष परीक्षण द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि सामान्यबोध की नैतिकता उन नियमों का निर्माण करती है जो सामान्य सख की वृद्धि करते हैं। ऐसे सहज निर्णय अनायास ही यह सिद्ध करते हैं कि मानस में कुछ परम नैतिक सत्य हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उपयोगितावाद और सहजज्ञानवाद में विरोध नहीं है किन्तु स्वार्थ और कर्तव्य में अवश्य विरोध है। उस विरोध को यह मानकर दूर किया जा सकता है कि विश्व का विधान नैतिक है (काण्ट और बटलर) और स्वार्थ तथा परमार्थ दोनों के ही लिए विधान में समान स्थान है। . बौद्धिक उपयोगितावाद : दार्शनिक सहजज्ञानवाद-सुखवादियों ने परमशुभ के स्वरूप को समझाने का प्रयास किया। उसको भावना के रूप में समझाया। उनके अनुसार जीवन का चरम ध्येय बौद्धिक या विवेक-सम्मत नहीं है, वह इन्द्रियशुभ है। वह शुभ चाहे व्यक्ति का हो अथवा समाज का, अपने मूल रूप में वह भावनात्मक है। मिल और बैंथम ने स्वार्थ और परमार्थ में सामंजस्य स्थापित करना चाहा। विकासवादियों ने सहानुभूति और विकास के नियम द्वारा उस कठिनाई को हल करना चाहा। सिजविक यह कहते हैं कि भावना द्वारा उस द्वन्द्व को दूर नहीं किया जा सकता । बुद्धि द्वारा ही उस विरोध की निवृत्ति हो सकती है। वे उपयोगितावाद को बौद्धिक प्राधार देकर स्वार्थ और परमार्थ के विरोध को दूर करते हैं। बुद्धि व्यवस्थापक तत्त्व (regulative: 1. Henry More. 2. Clarke. . १७० । नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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