SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिव का एक-दूसरे के परस्पर उचित सम्बन्ध में रहना है । अतः परम मूल्य दैहिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आत्मा की पूर्णता है । परम मूल्य वह है जो सम्पूर्ण आत्मा को सन्तोष देता है । अथवा मूल्यवादियों के अनुसार आत्म-साक्षात्कार विभिन्न मान्यताओं का वह बौद्धिक नियम है जो कि क्रमशः आत्मा की क्षमतानों को सन्तुलित रूप में सशक्त करता है । मूल्य का मानदण्ड' उस प्राचरण की ओर ले जाता है जो निःश्रेयस् अथवा सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान की प्राप्ति में सहायक है । विश्व में निहित परम सत्य की प्राप्ति ही परम ध्येय है । यह निःश्रेयस् है । इससे अधिक मूल्यवान् अन्य कुछ नहीं है । कुछ विचारकों ने भगवान् को परम मूल्य कहा है । वह स्वयम्भू पूर्णता है । इतिहास के प्रवाह में व्यक्ति इस सर्वोच्च मूल्य का अनुसन्धान कर रहा है । मूल्यवाद तथा अन्य विचारक - बुद्धिवादी, सुखवादी, पूर्णतावादी आदि विचारकों ने मूल्यवादियों की भाँति ही नैतिक आदर्श के स्वरूप को समझने का प्रयास किया । बुद्धिवादियों अथवा काण्ट ने नैतिक आदर्श को नियम के रूप में देखा, सुखवादियों ने सुख और पूर्णतावादियों ने उस पूर्णता के रूप में जो व्यक्ति और समाज के जीवन की चरितार्थता है । काण्ट का नियमानुवर्तिता का सिद्धान्त अन्तर्तथ्यशून्य है और सुखवादी उस नैतिक सिद्धान्त को देने में असमर्थ हैं जो सार्वभौम और वस्तुगत है । पूर्णतावादियों की पूर्णता की धारणा नैतिकता को एक सत्य तथ्य अवश्य देती है किन्तु वे स्पष्ट और व्यापक रूप से पूर्णता का अर्थ समझाने में असमर्थ रहे। मूल्यवादी पूर्णतावादियों की भाँति नैतिकता की व्याख्या श्रात्मसाक्षात्कार के रूप में करते हैं । वे अन्य तात्त्विक सिद्धान्तों से इस बात में भिन्न हैं कि नैतिकता की ओर उनका दृष्टिकोण शील की आधुनिकतम विकसित धारणा का है । उनके लिए सामान्य मूल्य ( generic value), जो कि नैतिक मूल्य से भिन्न है, अस्तित्व पर निर्भर नहीं वरन् अस्तित्व की बाध्यता पर निर्भर है । 2 वास्तव में, मुल्यवादियों ने उसी प्राचीन किन्तु चिरनूतन प्रश्न को उठाया जिसे कि सुकरात और प्लेटों ने उठाया था और वह है, शुभ का क्या रूप है ? मूल्यवादी इसी समस्या का हल करने के लिए प्रश्न करते हैं : परम मूल्य से क्या अभिप्राय है ? 1. The Standard as Value. 2. Hill, pp. 273. Jain Education International For Personal & Private Use Only मूल्यवाद / २७६ www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy