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न कि उद्गम को। मनुष्य बौद्धिक और चिन्तनशील है। उसका अप्राप्य ध्येय उसके वास्तविक स्वभाव का प्रतिबिम्ब है। मानव-समाज का अध्ययन बतलाता है कि विकास व्यक्ति और वातावरण के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं कर रहा है बल्कि प्रात्मचेतन स्वतन्त्र व्यक्ति अपने आदर्श के अनुरूप वातावरण को संयोजित कर रहे हैं । दृढ़ संकल्प और नेतिक अन्तर्ज्ञानवाले व्यक्तियों-ईसा, बुद्ध, गांधी-ने अपने व्यक्तित्व में अपने आदर्शों को मूर्तिमान् किया और वातावरण को भी अपने आदर्शों के अनुरूप ढाला । नैतिकता यह जानना चाहती है कि समाज की कौन-सी स्थिति आदर्श स्थिति है । वह जीवशास्त्र की भाँति सामाजिक विकास के तथ्यात्मक वर्णन को ही सब-कुछ नहीं मान सकती। विकासवादी यह भूल गये कि नैतिकता अचेतन सामंजस्य से ऊपर है। वह उस सामंजस्य को समझना चाहती है जो कि समझ-बूझकर उच्चतम भविष्य के लिए स्वीकार किया जाता है। ऐसा सामंजस्य यान्त्रिक नहीं है, न वह प्राकृतिक विकास का अनिवार्य अंग ही है। इस सामंजस्य के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, प्राकृतिक विकासपूर्ण सामंजस्य की स्थिति को अपने-अाप स्थापित कर देगा। विकासवादियों ने वातावरण को स्थिर स्थितियों का विधान मात्र माना है जिससे जीव-रचना अपने जीवनसंरक्षण के लिए संयोजित होती है। वे यह भूल गये कि मनुष्य तो मनुष्य ही है, निम्न प्राणियों और उनके वातावरण तक में यह पाया जाता है और वे दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। व्यक्ति ही समाज पर पूर्णतया निर्भर नहीं है, समाज भी व्यक्तियों पर निर्भर है। वास्तव में वही समाज जीवित रह सकता है जिसे व्यक्तियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त है। जिस समाज के सदस्य समझ-बूझकर स्वेच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं वही उन्नत और जीवित समाज है । मनुष्य और पशु के आचरण में यही प्रमुख भेद है कि पशु के कर्म बौद्धिक आत्मा द्वारा संचालित नहीं होते। मनुष्य समाज एवं प्रकृति के हाथ का खिलौना नहीं है। प्रकृति उसे कठपुतली की तरह नहीं नचा सकती। उसका प्रकृति के साथ अन्ध-सामंजस्य नहीं है। जब से उसमें ध्येय-निहित बुद्धि (Purposive intelligence) का प्रादुर्भाव हुआ और पारस्परिक सहयोग की भावना एवं मानवता की भावना मे जन्म लिया तब से उसके सामंजस्य के दृष्टिकोण के क्षितिज में महान अन्तर आ गया है। वह अब बाह्य जगत् को अपने आन्तरिक जगत्-प्रादर्शों और मान्यताओं के अनुरूप बनाना चाहता है। यदि यह मान लें कि ध्येय-निहित बुद्धि को प्रकृति ने जन्म दिया है तो यह भी
विकासवादी सुखवाद / १६७
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