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________________ स्पष्ट है कि प्रकृति का यह शिशु अब उसका स्वामी बन गया है । समाज केवल भौतिक सामंजस्य का सूचक नहीं है । वह आत्मचेतन प्राणी के लिए वह स्थान है जहाँ उसे उच्च गुणों के उपार्जन के लिए सुविधा मिल सकती है। विकासवादी भूल जाते हैं कि मनुष्य स्वतन्त्र नैतिक प्राणी है। वह अपने वातावरण को स्वयं बना सकता है। जैव क्षेत्र के संवेदनशील जीव और नैतिक क्षेत्र के बुद्धिजीवी में अन्तर है। इस अन्तर के कारण मनुष्य-जीवन में शक्त और अशक्त का विरोध अल्प एवं नगण्य है। यहाँ निर्बल के ऊपर सबल की विजय नहीं है । मनुष्य की सब आवश्यकताओं को भौतिक एवं जैव नहीं कह सकते। जातियों के संघर्ष को कायिक समुदायों का संघर्ष मात्र नहीं कह सकते। यह, जैसा कि अलेग्जेण्डर ने माना है, उच्च और निम्न तथा नैतिक और सामाजिक विचारों का संघर्ष है। - सामाजिक जीव-रचना का रूपक सन्देहजनक है-विकासवादियों ने समाज और जीव-रचना में सादृश्य दिखलाकर यह बतलाया कि उनके पूर्व के सिद्धान्त नैतिक दृष्टि के साथ ही जैव दृष्टि से भी निर्बल और त्याज्य हैं । जिस आत्मा की तृप्ति के लिए उन्होंने प्रयास किया वह समाज से असम्बद्ध नहीं है। उसका और समाज का अनिवार्य और अनन्य सम्बन्ध है । सुखवाद के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन यह बतला चुका है कि वे व्यक्ति और समाज के अनन्य सम्बन्ध को समझाने में असमर्थ रहे। इसी भाँति बुद्धिपरतावादियों (सिनिक्स, स्टोइक्स, काण्ट) का सिद्धान्त इस सम्बन्ध को नहीं समझ पाया। उन्होंने भी समाज को विरोधी शक्तियों की बाह्य-एकता के रूप में देखा। विकासवादियों ने यह समझाया कि व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध संयोग मात्र नहीं है । वे आकस्मिक रूप से सम्बन्धित नहीं, अनन्य रूप से सम्बद्ध हैं। समाज को जीव-रचना (अंगी) कहकर उन्होंने यह समझाया कि व्यक्ति समाज पर निर्भर है। किन्तु इस वाक्य-खण्ड-जीव-रचना--की व्याख्या सन्देहजनक है। विकासवादियों ने स्वयं माना है कि समाज और जीव-रचना में समानता के साथ ही स्पष्ट भेद भी है। अत: जीव-रचना के रूपक को परम रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसे सादृश्य के रूप में ही स्वीकार करना होगा । जीव-रचना के अवयव स्वतन्त्र, आत्मनिर्भर जीवन नहीं बिता सकते। समाज में व्यक्ति का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व है। उसके सुख-दुःख व्यक्तिगत और सापेक्ष हैं। सिजविक ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि सुख-दुःख का अनुभव व्यक्ति करता है, न कि सामाजिक जीव-रचना । जैव जीव-रचना के १६८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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