SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की आवश्यकता है और न नैतिक विज्ञान की। अन्तर्बोध की उपर्युक्त परिभाषानों की सीमाएं-अन्तर्बोध की उपर्युक्त सभी परिभाषानों का अध्ययन यह बतलाता है कि उसे हम नैतिक शक्ति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। कानून के क्षेत्र में अन्तर्बोध अथवा उसके समानार्थी शब्द का कोई स्थान नहीं है । व्यापक काननी ज्ञान को ही अन्तर्बोध कह दिया गया है। धर्मशास्त्रियों ने अन्तर्बोध को जिस रूप में स्वीकार किया है वह भी नैतिक दृष्टि से मान्य नहीं है। नैतिक नियम अान्तरिक है किन्तु दिव्यवाणी का आदेश बाह्य है। उसकी बुद्धि स्वतन्त्र रूप से इस तथ्य पर चिन्तन नहीं करती कि उसके लिए क्या करना वांछनीय है । व्यक्ति उस सेवक की भाँति है जो स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य करना ही कर्तध्य मानता है । सदाचार के नियमों का पालन करने की सद्प्रेरणा रखनेवाला व्यक्ति अथवा सदविवेकी जब जटिल परिस्थितियों में पड़ जाता है और सदाचार के नियमों को समझने में असमर्थ हो जाता है तब उसे पण्डितों और धार्मिक पुस्तकों की सहायता लेनी पड़ती है । इस सहायता को प्राप्त करने में असमर्थ होने पर वह जन-सामान्य द्वारा स्वीकृत सिद्धान्तों का आश्रय लेता है । किन्तु सामान्य ज्ञान को प्राप्त करना सहजज्ञान प्राप्त करना नहीं है। मनुष्यों के सामान्यबोध के अनुरूप चलना अथवा आचरण के बारे में सामान्य अनुमति प्राप्त करना और सहजज्ञान द्वारा कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को निर्धारित करना दो भिन्न सत्य हैं। स्वार्थ सुखवाद ने जिस व्यावसायिक बुद्धि को महत्त्व दिया है उसे हम नैतिक शक्ति नहीं कह सकते हैं। नैतिक शक्ति सदसत् बुद्धि है। वह कर्मों को उनके सुखद परिणामों के कारण शुभ नहीं कहती बल्कि उनके आभ्यन्तरिक गुणों के कारण । इसी भाँति परार्थ सुखवादी तथा विकासवादी सुखवादी भी नैतिक दृष्टि से अन्तर्बोध का मूल्यांकन नहीं कर पाये । अन्तर्बोध आन्तरिक शक्ति है। उसे उपाजित भावना अथवा वंशानुगत गुण के रूप में नहीं समझाया जा सकता । सामान्य रूप से अन्तर्बोध का जिस अर्थ में प्रयोग किया जाता है, उसे स्वीकार करने में भी अनेक कठिनाइयाँ हैं। यह एक अनुभवात्मक सत्य है कि सभी नैतिकता के प्रतिनिधियों को एक प्रकार का सहजज्ञान होता है और वह उनके मानस के नैतिक अनुभव का एक विशाल भाग होता है। चिन्तनशील व्यक्ति जब अपने ही सहजज्ञान पर चिन्तन करते हैं तो वे उसे अकाट्य और असन्दिग्ध नहीं मान पाते । जब वे अपने से स्वयं पूछते हैं तो उन्हें तुरन्त उस २४२ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy