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________________ नवीन परिस्थिति का निर्माण नहीं करती। वह इच्छाओं, आवेगों एवं प्रवृत्तियों को ही राह दिखाती है। जब संकल्प-शक्ति बाहरी स्वरूप धारण कर लेती अथवा बाहर की ओर प्रवाहित हो जाती है तब वह आचरण में परिणत हो जाती है। संकल्प-शक्ति दृढ़ निश्चय के कारण ही एक विशिष्ट रूप धारण करती है। प्रबल इच्छा को कर्म में बदल देती है। निर्णीत कर्म सकल्प-शक्ति का ही यथार्थ और वास्तविक रूप है और संकल्प-शक्ति चरित्र या आत्मा के स्वरूप को व्यक्त करती है । संकल्प-शक्ति या मनुष्य के निर्णय का मूल्य तभी आँक सकते हैं जब वह आचरण का रूप धारण कर लेता है। मनुष्य के व्यक्तित्व की महत्ता और नैतिकता तभी सिद्ध हो सकती है जब कि वह उचित रूप से व्यवहार करे। नैतिक कर्म की समस्या निर्णीत कर्म में जहाँ तक इच्छात्रों का स्वरूपविवेचन और निर्णय का प्रश्न है, नैतिक और अनैतिक प्राणी की विचारप्रणाली में भेद है। जहाँ तक जंगली, अप्रबुद्ध व्यक्तियों का प्रश्न है वे अपनी प्रवृत्तियों, आवेगों और बाह्य प्रभावों के अनुरूप कर्म करते हैं। कुछ व्यक्ति तो इतनी अभ्यस्त प्रकृति के होते हैं कि वह बिना सोचे-समझे अपने जीवनमार्ग में चलते रहते हैं । उनका विवेचन और चिन्तन एक प्रकार से यान्त्रिकसा होता है। उनकी निर्णयात्मक शक्ति कुण्ठित हो जाती है। उनके जीवन में उचित मानसिक द्वन्द्व के लिए कोई स्थान नहीं है। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे चरित्र भी होते हैं जो अत्यन्त स्वार्थी और लोभी प्रवृत्तियों को पालते हैं; आत्मलाभ को सम्मुख रखकर वं मानसिक द्वन्द्व से मुक्ति पा लेते हैं । कुछ ऐसे अपसामान्य लोग भी होते हैं जो मानसिक संघर्ष में ही पड़े रहते हैं। अपने मार्ग को निर्धारित नहीं कर पाते हैं। इसी प्रकार व्यक्तियों को विभिन्न वर्गों में बाँटा जा सकता है। किन्तु नैतिक जीवन आत्म-संचालित जीवन है जिसका क्षेत्र स्वेच्छाकृत कर्म है। नैतिक दृष्टि से स्वेच्छाकृत कर्म को केवल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तक सीमित करना उचित नहीं होगा। नैतिक प्राणी गूढ़ विवेचन द्वारा ही अपने कर्म को निर्धारित करता है । वह उपयोगी या परिस्थिति के अनुकूल कर्मों को नहीं करता है। उसके कर्मों का उचित होना आवश्यक है। नैतिक प्रापी के स्वेच्छाकृत कर्म को भी इच्छाएँ और आवेग जन्म देते हैं। नैतिक कर्म का मुख्य लक्षण यह है कि उसे अपनाने के पूर्व व्यक्ति का धर्म हो जाता है कि वह कर्म का व्यापक और पूर्ण मूल्यांकन करे; भिन्न पक्षान्तरों के 'सम्मख होने पर इस पर विचार करे कि उसके लिए किस पक्षान्तर को अपनाना ६८ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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