SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामने रखकर लोगों को सब प्रकार की शिक्षा दी । उन्होंने भावनाओं का उन्नयन कर उन्हें बौद्धिक स्तर पर उठाने का आदेश दिया । गांधीजी मनुष्य-ज् -जीवन के उन्नत तथा दुर्बल, दोनों पक्षों से भली-भाँति परिचित थे । श्रात्म चेतन मनुष्य पशुता से ऊपर उठकर आत्मानन्द प्राप्त कर सकता है, यही संक्षेप में गांधीवाद का तत्त्व तथा उनका नैतिक दर्शन है । वे जानते थे कि प्राणी का व्यक्तित्व सृष्टि का एक आवश्यक अंग है । उसका आत्म-सन्तोप सष्टिमात्र की प्रसन्नता पर निर्भर है । व्यक्तिगत कल्याण और लोक-कल्याण में अभिन्नता है । अतः मानवता की सोयी हुई चेतना को जगाना ही उन्होंने अपना धर्म समझा । उनका जीवन उपनिषदों के कथन का क्रियात्मक रूप रहा है । "मैं शक्ति का आकांक्षी नहीं हूँ, मैं स्वर्ग का आकांक्षी हूँ, मैं पुनर्जन्म से मुक्ति का आकांक्षी नहीं हूँ, मैं सृष्टि के प्रार्त प्राणियों को वेदना से मुक्त करने का आकांक्षी हूँ ।"" गांधीजी की यह आकांक्षा प्रात्मज्ञानियों के लिए, आत्मिक सत्य को समझनेवालों के लिए नवीन और असम्भव नहीं है । सत्तात्मक एकता के माननेवाले का ममत्व व्यापक होता है। गांधीजी स्वयं ममता तथा लोक-प्रेम की मूर्ति थे । उन्हें प्राणों का मोह या मृत्यु का भय नहीं था । उनका जीवन विश्व - जीवन से प्रोत-प्रोत था । इसलिए उन्होंने धरती की सन्तानों को उन्नत मनुष्यत्व में बाँधकर भू-स्वर्ग निर्माण करने की चेष्टा की । वे लोक-पुरुष थे । मानव-सभ्यता की सांस्कृतिक और नैतिक उन्नति के द्योतक थे। सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, प्रार्थिक विषमताओं, वर्गयुद्धों, व्यक्तिगत घृणा-द्वेषों से वे मानवों का उद्धार करना चाहते थे । बुद्ध और मसीह की भाँति नवीन मानवता की सजीव शोभा को पृथ्वी पर मूर्तिमान् करना चाहते थे । पृथ्वी को प्रात्मिक ऐश्वर्य देना चाहते थे । किन्तु प्रश्न यह है कि गांधी के विश्व - प्रेमरूपी रामराज्य की स्थापना सम्भव, है या नहीं ? क्या वह केवल बौद्धिक आदर्श है ? गांधीजी के अनुसार यह आत्मिक आदर्श है तो श्रात्म-त्याग और आत्मम-शुद्धि' द्वारा सम्भव है । उसको १. एफ० जी० जेन्स के अनुसार भी गांधी-नैतिकता के यही अर्थ हैं : 'दूसरों के लिए तपना, उन्हें प्रेम देना – वह पुराने और नये मसीह को अपने समय की खोज है ।" पट्टाभि भा० १, पृ० १८६ | अनुभव नहीं किया जा सकता | २ विना श्रात्म-शुद्धि के प्राणिमात्र के साथ एकता का और ग्रत्न-शुद्धि के अभाव में धर्म का पालन करना भी हर तरह नामुमकिन है । लेकिन मैं पल-पल पर इस बात का अनुभव करता हूँ कि शुद्धि का वह मार्ग विकट .. गांधीजी / ३५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy