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________________ आनन्द से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। परम शुभ अभीष्ट वस्तु है। किन्तु वह इस जीवन में अलभ्य है। जहाँ तक नैतिक जीवन का प्रश्न है मनुष्य को कर्तव्य के लिए कर्म करना चाहिए । कर्तव्य को सुख के लिए साधन मानकर नहीं करना चाहिए। कर्तव्य के लिए कर्म को महत्त्व देने के साथ ही वह यह स्वीकार करता है कि बौद्धिक रूप से तब तक भली प्रकार से कर्तव्य नहीं किया जा सकता जब तक यह आशा न हो कि आनन्द मिलेगा। यहाँ पर वह परम शुभ की धारणा पर आ जाता है और कहता है कि व्यक्ति के लिए अपने निजी सुख का ध्यान रखना विवेकसम्मत है । पर उचित बौद्धिक प्रात्म-प्रेम केवल सामान्य सुख की ही खोज नहीं करता, बल्कि वह उस सुख की खोज करता है जिसका नैतिक मूल्य है । व्यक्ति के लिए परम शुभ न तो केवल सद्गुण है और न केवल प्रानन्द, वह वह नैतिक राज्य है जहाँ सुख और सदगुण परस्पर सन्तुलित हैं । बिना ऐसे राज्य को स्वीकार किये नैतिकता के उच्च और महान् विचार प्रशंसा और श्रद्धा के विषय भले ही हो सकते हों किन्तु उनकी वास्तविक देन कुछ नहीं हो सकती । वे कर्मों और उद्देश्यों के वास्तविक प्रेरणा-स्रोत नहीं बन सकते । बौद्धिक रूप से मनुष्य नैतिक कर्मों को तब तक नहीं अपना सकेगा जब तक उसे यह आशा न हो जाये कि उसे आनन्द मिलेगा। नैतिक शुभ का लक्ष्य परम शुभ है और परम शुभ प्रानन्द और सद्गुण का ऐक्य है। नैतिक नियम रूपात्मक है-शुभ संकल्प ही एकमात्र शुभ है। इसका सिद्धान्त इसी में है। यह कथन बतलाता है कि नैतिक नियम कोई विशिष्ट विषय (Content) नहीं हो सकता। वह विशिष्ट वस्तुओं के बारे में नहीं बताता है । वह इस काम को करो और इस काम को मत करो, नहीं कहता। नैतिक नियम अनिवार्य और सार्वभौम है। विशिष्ट वस्तुएँ अनुभव-सापेक्ष और अनिश्चित हैं; अतः नैतिक नियम का सम्बन्ध किसी वस्तु से नहीं हो सकता। वह नहीं बतलाता कि कर्म का क्या वस्तुतत्त्व (matter) होना चाहिए। वह केवल उनके रूप (form.) के बारे में बतला सकता है। नैतिक नियम बुद्धि से प्राप्त होता है, न कि भावना से । अतः यह विषयात्मक (material) नहीं । हो सकता । यदि इसे विषयात्मक मान लें तो नैतिक सिद्धान्त ध्येय या परिणाम से युक्त हो जायेगा जो कि अनुचित है। नैतिक सिद्धान्त अपने-आपमें शुभ है । वह रूपात्मक तथा अनुभव-निरपेक्ष है और व्यावहारिक बुद्धि की देन है। काण्ट के पूर्व के विचारकों ने नियम की धारणा को शुभ की धारणा के अधीन माना है। काण्ट ने नैतिकता के सिद्धान्त को केवल रूपात्मक माना है । यह बुद्धिपरतावाद (परिशेष) / २२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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