SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो कि केवल प्राकृतिक शक्तियों का परिणाम है, उसे नैतिक नियमों का पालन करने का आदेश देना निरर्थक है।" ____ सुखवाद में विरोध–यदि यह मान भी लिया जाये कि सुख ही एकमात्र मनुष्य का नैतिक लक्ष्य है तो इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? सुखवाद के अनुसार निरन्तर सुख की खोज करनी चाहिए। किन्तु सुख की प्राप्ति का येह साधन आत्मघाती है। सुखवादियों की इस उक्ति में कि सदैव क्षणिक और तत्कालीन सुख की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए, स्वयं आत्मविरोध मिलता है। बाद के सुखवादियों ने माना कि सुख पाने की उत्तम रीति यही है कि उसे भूले रहें। चिन्तन और गूढ़ अध्ययन द्वारा अत्यन्त तीव्र और शुद्ध सुख प्राप्त होता है । इसका कारण यही है कि अध्ययन में तल्लीन होने के कारण अध्येता या विद्वान अपने को तथा अपनी संवेदनाओं को भूला रहता है। सुखवाद में मूलगत विरोधाभास यही है कि "यदि सुख के प्रति आवेग अत्यन्त प्रबल है तो यह अपने ध्येय में हार जाता है।" अथवा सुख की खोज करने से सुख प्राप्त नहीं होता है। इसी सत्य को मिल यह कहकर समझाता है कि वही व्यक्ति सुखी है जिसका मन सुख के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु पर केन्द्रित है। "अपने से पूछिये कि क्या आप सुखी हैं, और आप सुखी नहीं रहते ?" यदि सुख चाहते हैं तो यह भावना न लाइये कि सुख चाहिए। एकमात्र सुख की खोज करना सुख के विनाश की ओर अग्रसर होना है। जब ऍरिस्टिपस कहता है कि केवल तत्कालीन क्षणिक सुख की खोज करनी चाहिए तो क्या इससे यह ध्वनि नहीं निकलती है कि दूसरे क्षण दुःख सहना पड़े तो कोई हानि नहीं ? प्रभाव : वस्तुगत मापदण्ड, गुणात्मक भेद, प्रेरणा, कर्तव्य-सुखवाद नैतिकता का एकरूप मापदण्ड नहीं दे सकता। वह उस वस्तुगत मापदण्ड को निर्धारित नहीं कर सकता जिसे कि सार्वभौम रूप से स्वीकार किया जा सके। सुखवाद के माधार पर सुख का मूल्य उसकी तीव्रता पर निर्भर है। किन्तु तीव्रता को कैसे प्रांका जा सकता है। सुख सापेक्ष और वैयक्तिक है। वह परिस्थिति, चरित्र और मानसिक स्थिति पर निर्भर है। प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव के अनुरूप ही वस्तु सुखप्रद अथवा दुःखप्रद होती है । बौद्धिक व्यक्तित्व के लिए बौद्धिक सुख तीव्र है, दयालु के लिए दान और परोपकार से प्राप्त सुख और विषयी के लिए शारीरिक सुख अत्यन्त तीव्र है । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की सुख-दुःख की भावना आत्मगत एवं दूसरे से भिन्न है। ऐसी स्थिति में नैतिकता की क्या पहचान है ? सुख का मूल्यांकन कैसे किया जा सकता है ? : सुखवाद | १३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy