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________________ हैं, जिनके लिए उन्होंने गम्भीर आलोचनात्मक पद्धति को अपनाया है। उत्तरप्रत्युत्तर द्वारा नैतिक प्रश्नों की गहराई और व्यापकता दोनों को ही समझना चाहा है । विभिन्न सिद्धान्तों का परीक्षण करके उन्होंने नैतिक सत्य को समझने की चेष्टा की है। अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते समय एक ओर तो वे काण्ट के निष्पक्षता (समानता) के सिद्धान्त से प्रभावित हुए हैं, दूसरी ओर बटलर के प्रात्मप्रेम से और तीसरी ओर उपयोगितावाद से । इन तत्त्वों को एकता के साँचे में ढालने के लिए उन्होंने सामान्यबोध को सहजज्ञानवाद की कसौटी ‘पर कसा । महत् दार्शनिक चिन्तन की तूलिका को इस मिश्रित रंग में डुबोकर उन्होंने जिस नतिक सत्य का चित्र बनाया है वह अपनी सर्वग्राही प्रवृत्ति के कारण अपना सन्तुलन खो बैठा है। इसमें सन्देह नहीं कि सिजविक का सिद्धान्त पूर्ववर्ती नैतिक सिद्धान्तों से अधिक व्यवस्थित, व्यापक तथा गढ़ है। 'फिर भी यह मानना पड़ेगा कि जिस गम्भीर सतर्कता के साथ तथा नैतिक पूर्वग्रहों से मुक्त होकर, वे अपने दर्शन का प्रारम्भ करते हैं और उसके विभिन्न विषयों और सूक्ष्मतम पहलुओं को उठाते हैं, अन्त में वे अपने विचारों के 'पारस्परिक विरोधों के कारण पाठकों को उतना ही निराश भी कर देते हैं। ___ स्वार्थ-परमार्थ का अनमेल मिलाप-दार्शनिक सहजज्ञानवाद को मानने के कारण वे यह स्वीकार करते हैं कि नैतिकता का आधार बौद्धिक या अनुभवनिरपेक्ष निर्णय है। जहाँ तक व्यक्ति के नैतिक कर्म की प्रेरणा का सम्बन्ध है, 'सिजविक 'सहजज्ञानवादी' या 'बुद्धिवादी' हैं । वे सुखवादी वहीं तक हैं जहाँ तक कि उनकी परम या सार्वभौम शुभ के स्वरूप की धारणा का प्रश्न है और तदनुसार ही उनके नैतिक मापदण्ड का दृष्टिकोण है। वास्तव में उनका सिद्धान्त बुद्धिवाद और सुखवाद अथवा सहजज्ञानवाद और उपयोगितावाद का असंगतिपूर्ण मेल है। वह इन दोनों के विरोध को दूर नहीं कर पाया । सुखवाद और बुद्धिवाद की तार्किक अनुरूपता को सिद्ध करने के प्रयास में सिजविक असफल रहे। उनके सिद्धान्त की मूल कठिनाई का पता तब चलता है जब कर्तव्य की बौद्धिक 'धारणा (परमार्थ) और मनुष्य के वास्तविक शुभ (स्वार्थ) के सामंजस्य की व्यावहारिक कठिनाई उत्पन्न होती है। 'व्यावहारिक विवेक का द्वैत' स्वार्थ और परमार्थ के वृत्त में घूमता है। सुखवाद को मानने पर परोपकारिता के उच्च आदर्श को प्राप्त करना समतल भूमि में चक्कर लगाकर पर्वतशिखर पर 1. Rashdall-The Theory of Good & Evil, Vol. I, p. 53. २७४ / नीतिशास्त्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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