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नैतिक श्रादेश: श्रावश्यक और उपयोगी - सामाजिक सुख वैयक्तिक 'सुखः के सम्बन्ध में ही सार्थक है। जितने भी नियम और नैतिक प्रदेश हैं (दैवी, राजनीतिक, सामाजिक आदि ) उन सबका सम्बन्ध वैयक्तिक सुख से ही है । प्रोटेगोरस की भाँति हॉब्स भी कहता है कि शुभ व्यक्तिगत है; सामाजिक शुभ for वैयक्तिक शुभ के अर्थशून्य है । जीवन के संरक्षण या सुखभोग के लिए नैतिक प्रदेश साधनमात्र हैं । इनकी अनिवार्यता इनके उपयोगी होने पर निर्भर
| नैतिक आदेश मार्गदर्शक प्रदेश हैं । नीतिशास्त्र और नैतिक प्रदेशों की यही उपयोगिता है कि वे व्यक्ति को उचित - अनुचित का ज्ञान देते हैं । नैतिक विवेक बताता है कि सुख की प्राप्ति कैसे सम्भव है । व्यक्ति स्वभाव से असामाजिक है । किन्तु प्रसामाजिक जीवन एकाकी, असुन्दर, तुच्छ और हीन होता है । मनुष्य की आवश्यकताएँ उसे सामाजिक जीवन बिताने के लिए. बाधित करती हैं । आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह सामाजिक बना, किन्तु अपने अधिकारों और स्वार्थों को वह नहीं भूल सका । उनकी रक्षा के लिए उसने नियमों के रूप में समाज के साथ समझौता किया । राजनीतिक एकता में अपने को बाँधा । सद्गुणों को स्वीकार किया। उसके श्रात्म- प्रेम ने ही नैतिक नियमों को जन्म दिया है । अतः ये अनिवार्य और उपयोगी हैं ।
भ्रान्तिपूर्ण मनोविज्ञान- हॉब्स का मनोवैज्ञानिक ज्ञान उसे बतलाता है कि परमार्थी भावनाओं के मूल में आत्म-प्रेम है, सुखभोग है । हॉब्स का मनोविज्ञान भ्रान्तिपूर्ण है। उसने सब प्रवृत्तियों को स्वार्थी कहकर भयंकर भूल की । उसकी इस भूल के फलस्वरूप ही सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के सहज-ज्ञानवादियों का सिद्धान्त प्रस्फुटित हुआ। हॉब्स स्वयं भी अपने सिद्धान्त में पूर्ण रूप से परम स्वार्थवाद को नहीं अपना सका है। उसके सिद्धान्त में परम स्वार्थवाद लड़खड़ा उठता है । एक मोर तो वह यह मानता है कि नैतिकता का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, मानव-निर्णीत सामाजिक समझौता ही नैतिक मान्यताओं को एवं उचित और अनुचित को निर्धारित करता है; नैतिकता राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर है। दूसरी ओर वह यह मानता है कि सामाजिक एवं नैतिक आदेश का पालन करना अनिवार्य है । सामाजिक संघटन के लिए त्याग करना आवश्यक है । सामाजिक शुभ व्यक्ति के लिए उपयोगी है । इस प्रकार उसके सिद्धान्त में दो विरोधी कथन मिलते हैं । यदि यह मान लें कि सामाजिक शुभ वैयक्तिक शुभ के लिए उपयोगी है तो इसके अर्थ यह हुए कि सामाजिक शुभ और वैयक्तिक शुभ परस्परविरोधी नहीं हैं । वे एक ही सत्य
सुखवाद (परिशेष ) - / १३६:
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