________________
जीवन की अनिवार्य मान्यताएँ हैं । नैतिक प्रयासों एवं आचरण के लिए मानवजीवन के नैरन्तर्य की धारणा हमें बल प्रदान करती है। यदि यह मान लें कि क्षणभंगुर है, कल क्या होगा हम नहीं जानते, एवं भविष्य अनिश्चित और अज्ञेय है तथा इस जीवन के साथ ही आत्मा का विनाश हो जायेगा तो मनुष्य का नैतिक मूल्यों से विश्वास हट जायेगा और वह उस आचरण को अपना लेगा जो स्वार्थी, सुखवादी एवं असामाजिक है, जो मानवता-व्यक्ति तथा समाजदोनों के लिए ही घातक है। आत्मा की अमरता पर विश्वास रख मनुष्य उस भावी जगत की कल्पना करता है जहाँ उसका नैतिक आचरण शुभ और मंगल का प्रतीक होगा । भावी एवं नैतिक विश्व में, काण्ट के अनुसार नैतिकता अथवा शुभाचरण और आनन्द एक-दूसरे से सम्बद्ध होंगे । अतः आत्मा की अमरता, उसकी अविच्छिन्नता, शुभ आचरण के लिए प्रेरणादायक है। यदि आत्मा के अस्तित्व का इसी जीवन के साथ पर्यवसान मान लें अथवा आत्मा की क्षणभंगुरता की धारणा को स्वीकार कर लें तो उसका स्पष्ट परिणाम भोगवादी अथवा चार्वाक और स्थूल सुखवादी दृष्टिकोण होगा जो व्यक्ति और समाज के जीवन के लिए विनाशकारी है।
जिस भाँति भविष्य जीवन नैतिकता की एक आवश्यक शर्त है उसी भाँति ईश्वर का अस्तित्व भी है। नैतिक ज्ञान उस सत्ता की अपेक्षा रखता है जो पूर्ण, सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी है एवं जो नैतिकता और प्रकृति का संरक्षक तथा न्याय और औचित्य का रक्षक है । ऐसी सत्ता की धारणा नैतिकता का वह महान् आधार और सम्बल है जो नैतिक व्यक्ति को विषम से विषमतर स्थिति में अडिग रखता है। विश्व एक सुनियोजित सोद्देश्य समग्रता है और इसलिए प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह शुभ की प्राप्ति के लिए प्रयास करे, शुभ की प्राप्ति में भगवान सहायक होंगे क्योंकि वह शुभत्व का प्रतीक है।
प्राचरण-कला की सम्भावना-कुछ विचारक नीतिशास्त्र को प्राचरणकला कहते हैं, किन्तु उसे प्राचारविज्ञान ही कहना उचित है । यथार्थ विज्ञान से अन्तर होने पर भी उसकी प्रणाली के कारण उसे विज्ञान ही कहना चाहिए। . जहाँ तक कला-निबन्धों का प्रश्न है उनका प्रयोग उस सुव्यवस्थित व्यक्त ज्ञान के लिए होता है जो ज्ञात सत्य को व्यवहार में लाता है । कला का उद्देश्य उस
१. देखिए-सुखवाद, तथा अध्याय २१ (चार्वाक दर्शन)। २. देखिए-अध्याय ४ के अन्तर्गत. 'ईश्वर विद्या'।
नीतिशास्त्र और विज्ञान | ३६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org